शेरों का शेर खेमकरन सोगरिया

                    


                           

आपने ऐसे कई योद्धाओं के नाम सुने होंगे जिन्होंने एक शेर का शिकार किया। उनमें से किसी को शेरखां तो किसी को शेर सिंह कहा गया। पर एक महायोद्धा ऐसे भी हुए जिन्होंने एक साथ दो शेर पछाड़े। वह शेरों के भी शेर थे। उन्होंने अपनी वीरता के जिंदगी भर झंडे गाढ़े फिर भी हमेशा गुमनाम ही बने रहे। ऐसे ही एक महायोद्धा थे, भरतपुर के खेमकरन सोगरिया। उन्होंने कभी मुगलों को टैक्स नहीं दिया।  सामंत और सरदार उसके नाम से थर-थर कांपते थे।

18वीं सदी में जाटों में बहादुरी के लिए अलीगढ़ के नंदराम, मथुरा के गोकुला, भरतपुर के राजाराम, चूरामणि, महाराजा सूरजमल और महाराजा जवाहर सिंह की तो खूब चर्चा होती है पर खेमकरन को  एकदम नजरअंदाज किया जाता है जबकि एक जमाने में उन्होंने मुगल सम्राट औरंगजेब की नाक में दम कर दी थी। लंबे समय तक दिल्ली से आगरा, आगरा से ग्वालियर और आगरा से अलवर तक रास्तों पर उनके दलों के आने-जाने को रोक दिया था। अठारहवीं शताब्दी की शुरुआत में उन्होंने चूरामणि के साथ कंधे से कंधा मिलाकर काम किया,  फिर बदन सिंह के साथ भी।  पर बाद मेंंं सत्ता की अंधी दौड़ में उसे जहर देकर मार दिया गया। जिस दिन उसकी मृत्यु हुई, उसी दिन उसकी प्रिय हथिनी ने भी  तड़प-तड़प कर दम तोड़ दिया। उनकी हथिनी बहुत ही स्वामिभक्त थी।

औरंगजेब की मृत्यु के बाद जब एक बार फिर हिंदुओं पर जजिया कर लगाने का प्रयास किया गया। वजीर नवाब मोहम्मद अमीन खां ने सम्राट को इसका प्रस्ताव दिया था। तब खेमकरन उसके विरोध में अड़ गए थे। अंतत: सम्राट को उनकी बात माननी पड़ी। जयपुर के संस्थापक महाराजा सवाई जय सिंह द्वितीय तक से उसने लोहा लिया। उनकी सेना को कई बार पराजित किया। इनमें थून की गढ़ी  और सहीराम की लड़ाई मुख्य हैं। इसके बावजूद जय सिंह उसकी वीरता के कायल थे। उन्होंने इन्हें अपने साथ आने के लिए 13 दिसंबर 1720 को  सम्मानित किया। उन्होंने दर्जनों लड़ाइयां लड़ीं लेकिन फतेहगढ़ी में सूरजमल के साथ हुई आखिरी लड़ाई के बाद वह कभी मैदान में नहीं लौटे।

सम्राट मोहम्मद शाह ने एक बार दिल्ली के मैदान में वीरता प्रदर्शन के लिए एक कार्यक्रम किया जिसमें बाघों से कुश्ती भी शामिल थी। कहते हैं कि इसके पीछे सम्राट की मंशा दूसरी ही थी। लेकिन खेमकरन के लिए बाघों से भिड़ना कोई नई बात नहीं थी। वह अपने क्षेत्र भरतपुर के आसपास आए दिन इनका शिकार करते थे। कार्यक्रम स्थल पर पहले एक बाघ छोड़ा गया फिर दूसरा। उन्होंने अपनी कटारी से दोनों बाघों का काम तमाम कर दिया तो सभी की आंखें फटी की फटी रह गईं।  सम्राट ने इन्हें बाघमार और बहादुर खां की उपाधि से सम्मानित किया।

खेमकरण लंबा चौड़ा और वलिष्ठ था। काफी उदार भी। यह उसकी खास अदा थी कि वह धौंसा यानि नगाड़ा बजाकर दोपहर का भोजन करता था। ऐसा इसलिए ताकि उसका कोई साथी भोजन से नहीं रहे। वैसे कोई भी उसके साथ भोजन कर सकता था।  भरतपुर का जो अजेय किला है, वास्तव में वहीं उसकी कच्ची गढ़ी थी, फतेहगढ़ी।  भरतपुर केजानेमाने इतिहासकार रामवीर सिंह वर्मा ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘जाटों का गौरवशाली इतिहास’ में इनके बारे में विस्तार से तथ्यात्मक विवरण दिया है। 



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