कभी सैंडविच बेचते थे दिलीप कुमार

                


                               

हिंदी सिनेमा के शलाका पुरुष दिलीप कुमार कभी पूना में  सैंडविच बेचा करते थे।  कोई कल्पना कर सकता था ऐसा इंसान  कभी रुपहले पर्दे के शिखर पर होगा।  लेकिन जीतोड़ मेहनत, बुलंद हौसले और भाग्य ने उनके लिए इस असंभव को संभव बना दिया।  वह उन गिने चुने लोगों में थे जो घोर राजनीतिक दुश्मनी होने के बावजूद हिंदुस्तान और पाकिस्तान दोनों में समान रूप से सम्मान पाते रहे। उन्हें पाकिस्तान ने अपना सर्वोच्च सम्मान ‘निशान- ए- इम्तियाज’ से नवाजा तो भारत ने भी  ‘पदम विभूषण’ से सम्मानित किया। टै्रजिडी किंग के नाम से मशहूर रहे दिलीप कुमार ने कभी अपने ऊपर विवाद की काली छाया तक नहीं पड़ने दी। 

11 दिसंबर 1922 को मौजूदा पाकिस्तान के पेशाबर में जन्मे दिलीप कुमार अपने पिता के साथ आठ साल की उम्र में ही मुंबई आ गए थे। परिवार की स्थिति अच्छी नहीं थी। पिता फल बेचकर खर्चा चलाते थे।  मुफलिसी का दौर था। ऐसे में घरों में कलह होना स्वाभाविक है। ऐसे ही वातावरण में पिता से नाराज होकर वह एक बार पूना चले गए। वहां उन्होंने मिलिट्री केंटीन में सैंडविच की स्टाल लगाई। पैसा इकट्ठा होने पर वह 1943 में वापस मुंबई आ गए। फिर डा. मसानी के माध्यम से मुंबई के एक थियेटर में काम करने का अवसर मिला। थियेटर की मालकिन देविका रानी ने ही इनका फिल्म ‘ज्वार भाटा’ के लिए डेब्यू कराया। उन्होंने ही इनका नाम मोहम्मद यूनुस खान से बदलकर दिलीप कुमार किया। यहीं से उनकी किस्मत बदली।  फिर हमेशा-हमेशा के लिए वह यहीं के होकर रह गए। 1947 के बंटवारे में भी उन्होंने भारत को ही चुना।  ऐसा नहीं है कि उन्होंने फिर असफलताएं नहीं देखी। शुरुआत की उनकी कई फिल्में सफल नहीं रर्हीं। लेकिन उन्होंने हिम्मत नहीं हारी।  1949 में फिल्म ‘अंदाज’ से उन्हें पहचान मिली  तो ‘जुगनू’ उनकी पहली हिट फिल्म रही।  इसके बाद उन्होंने फिर कभी मुड़ कर नहीं देखा। उन्होंने हिंदी सिनेमा को एक से एक हिट फिल्में दीं।  इनमें ‘मुगले आजम’, ‘विधाता’, ‘दुनिया’, ‘क्रांति’ ‘सौदागर’, ‘देवदास’, ‘इज्जतदार’आदि हैं। अपने छह दशक के अभिनय के जीवन में पांच दर्जन से ज्यादाफिल्मों में अभिनय किया। उनकी सबसे पहली फिल्म 1944 में बनी ‘ज्वार भाटा’ थी तो अंतिम फिल्म 1998 में ‘किला’ रही। फिल्मों  में उनके अभिनय को दुनिया भर में सराहा गया।  उन्हें दुखद अभिनय में महारत हासिल था। फिल्म ‘देवदास’ में अभिनय के बाद उन्हें ट्रैजिडी किंग कहा गया। उन्होंने शादी जरूर अभिनेत्री सायराबानो से की लेकिन फिल्मों में उनकी जोड़ी अभिनेत्री नूरजहां के साथ हिट रही।

 सायराबानो 12 साल की उम्र से ही इन पर फिदा रहीं। और लगातार  सालों साल शादी के लिए इनके पीछे पड़ी रही। बड़ी होने पर वह जब फिल्मों में काम करने के लिए इंटरब्यू देने जाती  तब भी वह दिलीप कुमार के प्रति अपनी चाहत उजागर कर देती थी। एक बार दिलीप कुमार जब बीमार पड़े तो वह लंदन से मुंबई चली आई और हास्पिटल में पास रह कर सेवा की। दिलीप कुमार उनसे दुगनी उम्र के थे, इसलिए वह उसके साथ विवाह से बचते थे लेकिन सायरबानो की जिद, प्रेम की मनुहार ने उन्हें विवाह के लिए मजबूर कर दिया।  1966 मेंं जब दोनों की शादी हुई तो दिलीप कुमार  44 के थे और सायरबानों केवल 22 की। 

1980 में उन्होंने आसमा से भी शादी की लेकिन जिंदगी भर साथ सायरबानो ने ही निभाया। उन्होंने दिलीप कुमार को बहुत ढेर प्यार दिया। वह उन्हें कभी ‘कोहिनूर’, कभी ‘साहेब’ तो कभी ‘जान’ कहकर पुकारती।  वह कहती, इन्हें बहुत जल्दी  नजर लग जाती है, इसलिए अक्सर नजरें उतारती रहती।  कोरोना काल में जब दिलीप कुमार के दो छोटे भाइयों की मृत्यु हो गई तो उसने दिलीप कुमार को इसके बारे में पता तक नहीं लगने दिया। उसे डर रहा कि कहीं उन्हें सदमा नहीं लग जाए। फिर भी वह उन्हें बचा नहीं सकी। जिंदगी भर का साथ सात जुलाई 2021 को  छूट गया। 

मीडिया रिपोर्ट के अनुसार फिल्मों में वह दुनिया में सबसे ज्यादा पुरस्कार पाने वाले अभिनेताओं में थे।  इस मामले में उनका नाम गिनीज बुक में भी दर्ज बताया जाता है।



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