दारा सिंह का कुत्ता

                            

                          


जी हां यहां उन्हीं दारा सिंह की बात है जिन्होंने पहलवानी के मामले में भारत का दुनियाभर में नाम रोशन किया,  जो कभी रुस्तमे हिंद रहे। उन्होंने अपने से करीब दुगने वजन के पहलवान किंग कौंग को चारों खाने चित्त किया, जीवन में एक भी कुश्ती नहीं हारी। इसके बाद उन्होंने सौ से ज्यादा फिल्मों में काम किया, उनके हनुमानजी के किरदार को सबसे ज्यादा सराहा गया। हां, उन्हीं का कुत्ता।   कैसा होगा? जरा सोच कर बताइए? कुछ लोग कहेंगे, उनके जैसा ही बलिष्ठ जर्मन शैफर्ड या अन्य किसी विशेष प्रजाति का होगा।  तो कुछ लोग हाथ कंगन को आरसी क्या,  गूगल पर तुरंत  सर्च करने लगेंगे, कुत्ता था भी या नहीं। मत सर्च करिए।  इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता, उनके पास कुत्ता था या नहीं क्योंकि कुत्ते की उन्हें जरूरत ही क्या होगी। उनके डर से वैसे ही चोर उचक्के घर के पास नहीं फटकते होंगे।  

बात जब कुत्ते की चली है तो ‘धोबी का कुत्ता घर का न घाट का’ की बात कैसे बिना चर्चा रह सकती है। कौन जाने किस परिस्थिति में यह कहावत चलन में आई होगी। (धोबी भाई क्षमा करें चूंकि कहावत में यह शब्द आया है तो यहां बार-बार मजबूरी में इस्तेमाल करना पड़ रहा है)। हो सकता है कि तब कुत्ता खास-खास लोगों के ही काम आता होगा।  कुछ लोग शिकार के लिए रखते होंगे। पहले लोगों की हैसियत गाय और घोड़ों की संख्या से आंकी जाती थी।  लेकिन अब जमाना बदल गया है।  धोबियों का और अन्य लोगों का भी ।

धोबी  भाई अब कंगाल नहीं रहे। उनके भी ठाटबाट हैं।  बहुतों की ड्राई  क्लीनिंग की बड़ी-बड़ी  दुकानें हो गई हैं, पैसा खूब आ रहा है। जो लोग नदी के किनारे या तालाबों पर कपड़े धोते हैं, उन्हें भी रखवाली के लिए कुत्ते चाहिए।  हो सकता है कि अब सबसे ज्यादा कुत्ते धोबियों के पास ही होंं। कई बार लोग इस धुन में भी कुत्ते रख लेते हैं कि जब पड़ोसी पर है तो हम कौन सा पतला मूतते हैं।  हम नहीं मानते पुरानी कहावत।  लेकिन कहावत है कि चलती चली जा रही है। बहुतों ने घरों के बाहर डंके की चोट पर लिख रखा है- ‘कुत्ते से सावधान’। अब तो मानोगे, उनके पास कुत्ता है।

महिलाएं जो पहले सायं को आपस में गपशप के दौरान घर में बनी सब्जियों या अपनी सास, ननद की चुगलखोरी से अपनी भडांस निकालती थी।  अब वे इस नए युग में श्वानों पर शास्त्रार्थ करती हैं -‘‘भैना हमारी तो समझ में बिल्कुल र्नांह आइ रही जै कुत्ता च्यों ले आए हैं, घर में  दिन पर भौं-भौं करतु है’’। दूसरी-‘‘ हमारे यहां तो छोटा सा पिल्ला है- बच्चे खेलते रहते हैं, मुझे फुरसत मिल जाती है तो मैं भी खेल लेती हूं। रात्रि को गेट के पास बांध देते हैं। एक कुत्ता तो घर में रहना ही चाहिए’’।

तीसरी-‘‘हमारे यहां से एक भी नहीं है बहन जी।  दिन भर घर खाली-खाली सा लगता है। बच्चे स्कूल चले जाते हैं, वे दफ्तर में। हम कहा करें’’? 

- ‘‘हमारे उनसे बात कर लेना,  मैं कह दूंगी, वे जुगाड़ से  अच्छा सा दिलवा देंगे’’। चौथी गर्व से सलाह देती है। पांचवी कैसे पीछे रह सकती थी। उसने झटपट कहा- ‘‘भैना हम तो सुबह मार्निंग वाक पर ले जाती हैं, इस बहाने उसका भी टहलना हो जाता है और अपना भी’’।

 छठवीं-‘‘हम तो मार्केट या कहीं घूमने जाते हैं तो कुत्ते को ले जाते हैं, खूब गहने पहनकर जाओ, किसी की मजाल हाथ  लगा दे, हमारा बिल्लू फाड़कर रख देगा’’। 

शेष सब एक साथ-‘‘हाय ही दैया। जि तौ हमने सोची ही नायं। नाते रिश्तेदारी में जाओ, कुत्ते को ले जाओ। सब बे खटके रहो। कुत्ता बच्चों की  भी रखवाली कर सकता  है और मालमत्ता की भी’’। 

कुत्ते स्टेटस सिंबल बन गए हैं।  गाय का इलाज करने वाले भूखों मर रहे हैं और कुत्ते वाले मौज कर रहे हैं। एक पशुओं के डाक्टर के पास गया। उनके यहां कुत्तों की रंग बिरंगी ड्रैस टंगी थी। गर्मी और जाड़ों की अलग-अलग। बेल्ट भी भांति-भांति की। मैंने पूछा-‘‘ डाक्टर साहब, गाय माता के लिए कुछ है?- ‘‘लोहे की सांकर हैं, वह भी यहां नहीं लोहामंडी मेें मिलेगी’’। उनका जवाब सुनकर चुपचाप कुत्ते की तरह मुंह लटकाकर  चला आया।


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