अटल बिहारी वाजपेयी बनाम नरेंद्र मोदी

                         


                               

अब यदि अटल बिहारी वाजपेयी प्रधानमंत्री होते तो क्या किसानों का यह आंदोलन इतना तूल पकड़ता? शायद नहीं। लेकिन यह एक कल्पना ही है। अब इसका कोई मतलब नहीं है। फिर भी जब तुलना करनी ही हो तो जिन्होंने अटलजी के तीन बार के प्रधानमंत्रित्व काल की राजनीति को देखा है, उनका  बरबस ही उत्तर होगा- नहीं,  बिल्कुल नहीं। किसानों से जुड़े कानूनों को लेकर वह इतनी जिद नहीं करते। क्योंकि वह सबको साथ लेकर चलने वाले राजनेता थे। 

एक बार जबकि उनके प्रधानमंत्री  रहते जम्मू कश्मीर से धारा 370 धारा हटाने को लेकर सुगबुगाहट हुई तो कुछ नेताओं के विरोध किए जाने पर उन्होंने तुरंत स्पष्ट किया, जब तक सभी सहयोगी नहीं चाहेंगे वे ऐसा कोई कदम नहीं उठाएंगे। इसके बाद उन्होंने धारा 370 हटाने का इरादा त्याग दिया। जबकि धारा 370 हटाना उनके चुनावी एजेंडे में शामिल था।

यह तो ज्यादाकर लोग जानते हैं कि मोदी के मुख्यमंत्रित्व काल में 2002 में गुजरात में एक हफ्ते तक दंगों के दौरान भारी खून खराबा होने पर तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी नाराज हो गए थे। पत्रकारों द्वा्रा पूछे गए एक सवाल में उन्होंने मोदी को राजधर्म का पालन करने की खुलकर सलाह दे डाली थी। तब राजनीतिक गलियारों में मोदी को हटाए जाने तक की चर्चा चल निकली थी। लेकिन यह बात बहुत कम जानते हैं कि मोदी अटलजी के प्रिय और विश्वासपात्र लोगों में से रहे हैं। उन्होंने ही मोदी को मुख्यमंत्री बनाया।

गुजरात में  तत्कालीन मुख्यमंत्री केशुभाई पटेल के विरोध की राजनीति करने के कारण मोदी को पार्टी में न केवल साइड कर दिया गया था बल्कि उन्हें गुजरात से बाहर जाने का भी फरमान दे दिया गया था। मोदी तब अमेरिका में निर्वासित की जिंदगी जी रहे थे। वह अटलजी ही थे जब 2000 में अमेरिका के दौरे पर गए। किसी तरह मोदी की उनसे मुलाकात हुई तब अटलजी ही ने ही  उन्हें यह उलाहना देकर दिल्ली बुलाया कि वह कब तक ऐसे बाहर पड़े रहोगे। इन्हें दिल्ली आने के लिए कहा। इसके बाद मोदी दिल्ली में आकर रहने लगे। अक्टूबर 2001 में ऐसा मोका आया जबकि  अटलजी ने उन्हें अचानक बुलाकर गुजरात जाकर मुख्यमंत्री की कुर्सी संभालने का आदेश दिया। इस तरह वह मुख्यमंत्री बने।

देश में अटलजी के नाम कई उपलब्धियां हैं।  चतुर्भुज हाईवे का निर्माण, परमाणु विस्फोट, पोटा  कानून, जातिगत जनगणना पर रोक, कर्मचारियों की पेंशन पर रोक आदि-आदि। यह जो निजीकरण की हवा चल रही है,  सरकारी कंपनियों की हिस्सेदारी बेचकर उन्हें प्राइवेट के हवाले किया जा रहा है, खेती में भी कंपनियों का विनिवेश बढ़ाने की कोशिश है, इसकी शुरुआत भी अटलजी ने ही की। उन्होंने पहली बार विनिवेश मंत्रालय का गठन किया था। जिसके पहले मंत्री अरुण शौरी बनाए गए ।

वह हिंदुस्तान की तरह पाकिस्तान में भी लोकप्रिय रहे। एक पत्रकार ने ‘आल बीजेंड मैन’ नाम की पुस्तक में तत्कालीन प्रधानमंत्री नबाज शरीफ के हवाले से कहा है कि अटलजी यदि पाकिस्तान में चुनाव लड़े तो जीत जाएंगे।  कारगिल के रूप में पाकिस्तान से एक युद्ध लड़ने के बाद भी वहां उनकी लोकप्रियता कम नहीं हुई। आगरा में हुई शिखर वार्ता के दौरान पाकिस्तान के जाने-माने पत्रकारों का कहना था कि उनके यहां (पाकिस्तान में) गांधीजी के बाद वह ऐसे दूसरे भारतीय नेता हैं जिन्हें पाकिस्तानी अवाम पसंद करता है। 

मोदीजी पर यह आरोप लगता है कि वह तानाशाही की ओर बढ़ रहे हैं। हालांकि इसका मूल्यांकन अभी नहीं बाद में करना उचित होगा लेकिन अटलजी के बारे में यह निर्विवाद है कि उन्होंने भारतीय लोकतंत्र को मजबूत किया। एक बार केवल एक वोट के कारण उन्हें सत्ता से हाथ धोना पड़ा। उन्होंने हंसी-खुशी प्रधानमंत्री पद से इस्तीफा दे दिया।  जबकि उनसे पहले सांसदों के खरीद फरोख्त की राजनीति शुरू हो चुकी थी। उन्होंने ऐसा कुछ नहीं करके राजनीतिक शुचिता का नया मानदंड बनाया। भारतीय राजनीति में उन्हें हमेशा याद किया जाएगा। 



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