अमेरिका में हिंदी

                                  

                    


अमेरिका में हिंदी का इतिहास ज्यादा पुराना नहीं है। विश्वयुद्ध के दौरान विदेशी भाषाओं के ज्ञान की आवश्कता को देखते हुए ही यहां हिंदी सीखने की शुरुआत की गई।  संभवतया सबसे पहले हेनरी होनिंग्सवाल्ड ने समतालीन बोलचाल की  हिंदी की रुपरेखा ‘स्पोकन हिंदुस्तानी’ में प्रस्तुत की। इसके बाद हिंदी ने कभी मुड़कर नहीं देखा। विगत कुछ दशकों से यहां भारतीयों की संख्या अप्रत्याशित रूप से बढ़ी है, इसी के साथ हिंदी भी फली- फूली है। पाकिस्तान, बंगला देश, नेपाल को छोड़ दुनिया के किसी भी एक देश में हिंदी बोलने और समझने वाले वालों की इतनी संख्या इतनी किसी अन्य देश में नहीं है, जितनी अकेले अमेरिका में। डा. करुणाशंकर उपाध्याय की पुस्तक ‘हिंदी का विश्व ‘ संदर्भ में अमेरिका में हिंदी बोलने और समझने वालों की संख्या 1.10 करोड़ बताई है जो गले नहीं उतरती है। मौजूदा समय में  यहां  दस लाख हिंदुस्तानी मतदाता हैं। करीब इतने ही ऐसे हिंदुस्तानी होंगे जिन्हें मताधिकार नहीं है। पाकिस्तानी, नेपाली और बंगलादेशी भी आपस में हिंदी बोलते और समझते हैं। इस प्रकार कह सकते हंैं कि यहां हिंदी बोलने और समझने वालों की संख्या तीस लाख से कम नहींं होंगी। इसका प्रमुख कारण है हिंदुस्तान से अमेरिका के प्रगाढ़ होते रिश्ते। यहां हिंदी शिक्षण और साहित्य सर्जन के उपयुक्त वातावरण और व्यवस्थाएं हैं। 

अमेरिका के दो दर्जन से ज्यादा विश्वविद्यालयों और सौ से ज्यादा केंद्रों पर हिंदी पढ़ाई और सिखाई जाती है। विश्वविद्यालयों में हिंदी के चार वर्षीय पाठ्यक्रम हैं जिनमें शुरू के दो वर्षों में व्याकरण, सही उच्चारण, बातचीत, लेखन सिखाया जाता है, बाद के दो वर्षों में साहित्य का अध्ययन होता है। यहां पिछले तीन दशक से शोध और अनुदित कार्य भी कियाजा रहा है। इसमें खासतौर से मध्यकालीन भक्ति काव्य, आधुनिक कथा साहित्य शामिल है। इसके अलावा हिंदी भाषा विज्ञान का अध्ययन भी किया जा रहा है।  इस पर अनेक शोध प्रबंध और पुस्तकें लिखी गई हैं।   अमेरिका में एक दशक से ज्यादा हिंदी अध्यापन सेजुड़ी रही डा. ऊषा गुप्ता के अनुसार यहां हिंदी की कक्षाओं में हिंदी पढ़ने वालों की संख्या भले ही कम हो, लेकिन वे बहुत गहराई से ज्ञान अर्जित करते हैं। इसके लिए शिक्षकों को रोजाना तैयारी करनी पड़ती है।

हिंदी के प्रचार-प्रसार में यहां के हिंदी रेडियो स्टेशन महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं।  इनमें‘ न्यूयार्क सिंटी‘, ‘न्यू न्यूयार्क सिंटी’, न्यूजर्सी में  ‘आरबीसी रेडियो’, शिकागो में ‘रेडियो हम सफर’, नार्थ टैक्सास में ‘सलाम-नमस्ते’, ‘फन एशिया रेडियो’, ह्यूस्टन में ‘संगीत’ रेडियो आदि शामिल हैं। तमाम केबिल और सेटलाइट के जरिए भारतीय चैनल सोनी टीवी, जीटीवी, स्टार प्लस आदि भारतीयों के घरों में लोकप्रिय हैं। भारतीय बहुल क्षेत्रों में अनेक ऐसे सार्वजनिक पुस्तकालय हैं, जिनमें हिंदी की पर्याप्त पुस्तकें उपलब्ध हैं।  विश्वविद्यालयों के पुस्तकालय,  दूतावास के पुस्तकालय और अन्य संस्थाओं के पुस्तकालय भी हिंदी पुस्तकों से समृद्ध हैं।

इसके अलावा अनेक संस्थाएं हिंदी को बढ़ावा देने के लिए सक्रिय हैं। इनमें अतरराष्ट्रीय हिंदी समिति, हिंदी साहित्य सभा, हिंदी साहित्य संघ आदि शामिल हैं। धार्मिक संस्थाएं भी हिंदी का दबदबा बढ़ाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रही हैं क्योंकि यहां अनेक लोग धार्मिक कारणों से हिंदी सीखते हैं। 

जहां तक अमेरिका में हिंदी साहित्य की बात है तो उसका स्तर भी यहां कमजोर नहीं है। यहां स्तरीय हिंदी साहित्य रचा जा रहा है। इसमें ने केवल यहां के जीवन का स्पंदन बल्कि यथार्थ की भी गहरी अनुभूति है। इसमें हिंदी का नया स्वाद और नई गंध है। इसके जरिए हम न केवल भारतीय समुदाय के सरोकारों बल्कि उनकी समस्याओं के भी परिचित हो रहे हैं। इसके बिना हिंदी का विश्व साहित्य अधूरा है।  उदाहरण के लिए अमेरिका के बारे में प्राय: बड़ी-बड़ी बातें की जाती हैं लेकिन इला प्रसाद की एक कहानी ‘मुआवजा’ का एक अंश कुछ और ही कहता है-‘‘ये साला न्यूयार्क है, इतना गंदा शहर। जितना करप्शन यहां है, दुनिया के किसी शहर में नहीं’’।  अरोड़ा की आवाज गूंजती है कान में’’।

‘‘उसने कहना चाहा था तुम भले इंसान हो। लेकिन कह नहीं पाई। लोकल ट्रेनों में, स्टेशन पर, इसके साथ भटक-भटक कर वह थक चुकी, थी तब  कार कंपनी ने साफ मना कर दिया था- ‘‘जब तक  दुर्घटना की पूरी रिपोर्ट नहीं मिल जाती, दूसरी कार नहीं देंगे’’।

अनिल प्रभाकर की कहानी- ‘उसका इंतजार’ एक ऐसी युवती के इर्द-गिर्द घूमती है जिसकी शादी को लेकर पूरा परिवार चिंतित है। उसकी समस्या यह है कि उसे विदेश में ऐसा लड़का नहीं मिलता जिसे वह  पसंद कर पाए और वह भारत में आकर शादी नहीं करना चाहती है। इसके कारण खूब समृद्धि के बावजूद परिवार को सुख-चैन नहीं है। अमेरिका में सुख समृद्धि के लिए बसे भारतीय परिवारों की इस समस्या  को बहुत ही बखूबी के साथ प्रस्तुत किया है।  

अमेरिका में हिंदी कथा साहित्य के तीन प्रमुख हस्ताक्षर हैं-  ऊषा प्रियंवदा, सुनीता जैन और सोमवीरा। तीनों नाम साठ के दशक में प्रकाश में आए। इन्होंने हिंदी साहित्य  को अनेक अमूल्य  कृतियां दी हैं। इनके बिना हिंदी साहित्य का मूल्यांकन पूरा नहीं होता है। इनके बाद कमला दत्त,  वेद प्रकाश बटुक,  इंद्रकांत शुक्ल ने यहां पहुंचकर अपनी पहचान सिद्ध की है। पिछले कुछ वर्षों में बड़ी संख्या में हिंदी लेखकों ने अमेरिका में प्रस्थान किया है। हिंदी साहित्य की दृष्टि से यह स्थिति काफी सुखद है।  सुषम वेदी के बारे में कहा जाता है कि यह अपनी पीढ़ी के लेखकों का प्रतिनिधित्व करती हैं। इनके अनेक उपन्यासों में सबसे चर्चित ‘हवन’ है।  इसमें इन्होंने जीवन के तमाम पहलुओं पर लिखा है। ‘सरस्वती की धार’, ‘चिड़िया और चील’, ‘दरवान’, ‘अवसान’, ‘अजेलियों के रंगीन फूल’, ‘काला लिवास’, ‘गुनहगार’,‘ गुरुभाई’, ‘तीसरी  दुनिया का मसीहा’,  ‘वे दोनों’ इनकी चर्चित कहानियां हैं। रामेश्वर सिंह अशांत का इस अर्थ में अमूल्य योगदान रहा है कि पत्रिकाओं के माध्यम से उन्होंने अमेरिकी हिंदी लेखकों को मंच दिया। ऊषा देवी कोल्हटकर ने हिंदी के अलावा मराठी में भी  लिखा है। स्वदेश राणा का उपन्यास  ‘कोठेवाली’  काफी चर्चित है। अमेरिका के अन्य हिंदी रचनाकारों में  प्रतिभा सक्सेना, अंशु जौहरी, इला प्रसाद,  राजश्री वर्मा, कुसुम मिश्रा,  ज्ञानेंद्र सिंह, सौमित्र,  सरोज अग्रवाल,  धनंजय कुमार अमरेंद्र कुमार, अनुराधा चंदर, वेद प्रकाश अरुण, नीलम जैन, वबिता श्रीवास्तव, शकुंतला बहादुर, देवी नागानी, कैलाशनाथ तिवारी के नाम उल्लेखनीय हैं।  इन्होंने अमेरिका में आने के बाद भी भारतीय परिवेश पर कहानियां लिखी हैं।  राजश्री की कहानी मूलत: स्त्री-पुरुष संबंधों के इर्द-गिर्द घूमती हैं। इनकी ‘मैं बोनसाई नहीं’, ‘मुक्ति और  नियति’, श्याम नरायण शुक्ल की ‘दीक्षा’, ‘समारोह’, ‘कर्मफल’, प्रतिभा सक्सेना की ‘फिर वह नहीं आई’।  अमरेंद्र सिन्हा की ‘ग्वासी ’ऐसी ही कहानियां हैं।  चंद्रशेखर जैसवाल की ‘सात फेरे’, मंजूर इत्थेसम की ‘मदरसा’ और सुनील गंगोपाध्याय की  ‘मोनेष मानुष’ कुछ ही साल पहले की हिंदी कहानियांं हैं। 

अमेरिका में संचालित पत्रिकाओं और ई-पत्रिकाओं का हिंदी साहित्य में योगदान है। इनमें साहित्य के विविध रूप हैं। कविताएं, कहानियों के अलावा व्यंग्य,  ताजा प्रसंगों पर आलेख भी  हैं।  इनके माध्यम से प्रवासी भारतीयों की मन:स्थिति को अच्छी  तरह समझा जा सकता है। ‘प्रवासी टुडे’ पत्रिका में अनिल शास्त्री द्वारा भ्रष्टाचार के खिलाफ समाजसेवी अन्ना हजारे के आंदोलन के बारे में संपादकीय  टिप्पणी दृष्टव्य है- ‘‘इन आंदोलनों का प्रवासियों द्वारा दिए गए समर्थनों से स्पष्ट है कि वे भारत के महाशक्ति बनने के बारे में आ रही बाधा को नहीं देखना चाहते हैं। वे चाहते हैं कि भारत में व्यवस्थागत सुधार हो’’।

हिंदी की यहां सम्मानजनक स्थिति है। इसका प्रमाण यह भी है कि वर्ष 2010 का नोबेल पुरस्कार प्राप्त करने वाले मारियो वरगास ल्होसा की पुस्तक  का सबसे पहले हिंदी में ‘किस्सागो’ के रूप में अनुवाद किया गया। लेकिन चिंताजनक पहलू यह है कि अमेरिका में स्थापित प्रवासी भारतीयों के परिवारों के बच्चे हिंदी आदि भारतीय भाषाएं सीखने की बजाय  स्पेनिश, फ्रेंच आदि सीखने को प्राथमिकता दे रहे हैं। लेकिन सुखद पहलू यह है कि भारतीय बाजार अमेरिकियोंं को हिंदी सीखने के लिए मजबूर कर रहा है। इस प्रकार अमेरिका में हिंदी के विकास के लिए अनुकूल स्थितियां हैं।


Comments

Popular posts from this blog

गौतम बुद्ध ने आखिर क्यों लिया संन्यास?

राजा महाराजाओं में कौन कितना अय्याश

खामियां नई शिक्षा नीति की