दुनिया की प्राचीन सर्वश्रेष्ठ वेधशाला

                    

                          


गुलाबी शहर जयपुर का जंतर-मतर भारत ही नहीं दुनिया की सर्वश्रेष्ठ प्राचीन  खगोलीय वेधशाला है। ग्रहों की स्थिति और काल गणना के उसके परिणाम अभी भी चौकाते हैं। इससे आज भी घंटे, मिनट और चौथाई मिनट तक के समय की सटीक गणना की जा सकती है।

दुनिया अब कितनी बदल गई है, ज्ञान-विज्ञान ने भारी तरक्की की है। अंतरिक्ष के बारे में बहुत सारी नई जानकारियां आ गई  हैं, लेकिन कई मामलों में  इस वेधशाला की अहमियत अभी भी बनी हुई है। यह प्रमाणित करती है कि पुराने समय में हमारा देश खगोल शास्त्र के मामले में कितना उन्नत था। पूरी दुनिया के लिए भी  यह एक प्राचीन दुर्लभ रचना है। इसलिए यूनेस्को ने इसे विश्व विरासत का दर्जा दिया है। अमेरिका की विस्कोंसिन यूनिवर्सिटी के एस्ट्रोनोमी एंड फिजिक्स के प्रोफेसर  वीरेंद्रनाथ शर्मा कहते हैं कि यह भारत की शान है, इसे सहेज कर रखे जाने की जरूरत है। तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी से मुलाकात कर उन्होंने इसे संरक्षित कराने का सार्थक प्रयास किया। 

जयपुर शहर के संस्थापक महाराजा सवाई जय सिंह द्वितीय ने 1728-38 के बीच इसका निर्माण कराया। महाराजा बेशक ज्यादा पढ़े नहीं थे,  11 साल की उम्र में ही राजगद्दी पर बैठ गए थे। फिर भी उन्होंने पढ़ने का अपना क्रम जारी रखा। इस बीच उन्होंने दर्जनों लड़ाइयां लड़ीं। कहीं हारे तो कहीं जीते। एक बार उन्हें महाराजा  की गद्दी से भी हाथ धोना पड़ा।  लेकिन ज्ञान-विज्ञान के बारे में उनका जज्बा बना रहा। वह जानते थे कि दुनिया को ज्ञान विज्ञान के जरिए ही तरक्की करनी है। खगोल शास्त्र के बारे में उन्हें अच्छा ज्ञान था। एक बार हिंदू और अफगानिस्तानी ज्योतिषियों में खगोलीय ज्ञान को लेकर बहस छिड़ गई तब उन्होंने पूरी दुनिया में मौजूद खगोलीय ज्ञान के बारे में जानकारी कराई। यूनान, अरब, पुतर्गाल, फ्रांस और इग्लैंड  अपने सांस्कृतिक दूत भेजकर तत्समय  विश्व भर में मौजूद खगोल शास्त्र की पांडुलिपियां मंगवाई। उनका भारतीय भाषा में अनुवाद कराया।  कई विदेशी खगोलशास्त्रयों को अपने दरबार में बुलवा कर उनसे चर्चा की। इसके बाद ही उन्होंने जंतर मंतर का निर्माण कराया। उन्होंने देश में पांच स्थानों पर खगोलीय वेधशालाएं बनवाई- दिल्ली, उज्जैन, मथुरा, वाराणसी और जयपुर।  सबसे पहले उज्जैन में काम शुरू कराया। इसके बाद दिल्ली में । इसके बाद ही जयपुर में जंतर-मंतर का निर्माण हुआ। यह सारा कार्य उन्होंने अपनी देखरेख में कराया।

इन सभी में जयपुर का जंतर-मंतर ही सबसे बड़ा और मुख्य है। यहां ग्रहों की स्थिति,  समय की काल गणना और ग्रहणों की भविष्यवाणी आदि के लिए 14 यंत्र बनाए गए हैं। इनमें सम्राट यंत्र, राम यंत्र, नाड़ी वलय यंत्र, दिशा यंत्र,  राशि वलय यंत्र, दिशा यंत्र, लघु क्रांति यंत्र, दीर्घ क्रांति यंत्र,  ध्रुव यंत्र,  दक्षिणा यंत्र, राज यंत्र, जय प्रकाश यंत्र क और ख आदि मुख्य हैं। इनमें से जय प्रकाश यंत्र जो उनके नाम पर ही हैं, इनका आविष्कार उन्होंने ही किया था, इनसे सूर्य का किसी राशि में प्रवेश का पता चलता है। इनमें से सम्राट यंत्र जो सबसे बड़ा है, 90 फुट ऊंचा, यह नक्षत्रों की क्रांति, विषुवांश और समय की जानकारी देता है। इसे विश्व की सबसे बड़ी पत्थर घड़ी भी कहते हैं। इसका नामकरण जाने-माने खलोलशास्त्री और महाराजा के गुरू जगन्नाथ सम्राट के नाम पर किया गया। एक लघु सम्राट यंत्र है, इसे धूप घड़ी भी कहते हैं, इससे स्थानीय समय की सटीक गणना होती है। ध्रुव दर्शक पट्टिका से ध्रुव तारे की अवस्थिति का पता चलता है। उन्नतांश यंत्र से आकाश के पिंडों के उन्नतांश और कोणीय ऊंचाई का पता चलता है।

इससे जाहिर होता है कि जयपुर के संस्थापक ने  देश के पांच मुख्य स्थानों पर जंतर-मंतर स्थापित कर जनमानस में व्याप्त अंध विश्वास को दूर करने का भी प्रयास किया।



Comments

Popular posts from this blog

गौतम बुद्ध ने आखिर क्यों लिया संन्यास?

राजा महाराजाओं में कौन कितना अय्याश

खामियां नई शिक्षा नीति की