पांच पेड़

कहानी
जब से मेरे पड़ोसी ने प्रधानमंत्री मोदी का पानीपत में ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ योजना के शुभारंभ के दौरान का भाषण पढ़ा है, वह बल्लियों उछल रहा है। वह कभी इधर उछलता है तो कभी उधर। उसके हाथ में अखबार में छपी खबर की कटिंग भी है, जिसे वह हाथ में इस तरह लहराता है, जैसे कारू का खजाना हो। कोई उसे पढ़कर देखे, तब तक झट उसे जेब में रख लेता है।  इतना खुश उसे कभी नहीं देखा गया, न बेटे के हाईस्कूल में फर्स्ट क्लास पास होने पर और नहीं, बिटिया का अच्छा रिश्ता तय होने पर। लेकिन वह बताता किसी को नहीं कि वह इतना खुश क्यों है? बस इतना ही कहता है, आ हा हाहा.. अब तो मजे आ गए । देखना, कुछ ही दिनों में क्या से क्या करता हंू। वह चाहता है कि इसका फायदा कोई और नहींं उठा ले। वह बात को जितना छुपाने की कोशिश करता है, लोगों में उतनी ही उसके प्रति उत्कंठा जाग रही है।
लोगों ने मुझे कहा- ‘‘पता करो मास्टर जी, क्या बात है? आप इसके बहुत से कामों में आते रहते हो। यह आपको भी नहीं बताएगा तो अपने बाप को भी नहीं बताएगा।’’ मैंने कहा- ‘‘किसी के काम आना एक बात है और किसी से काम निकालना अलग।’’ लेकिन लोग मानने को तैयार ही नहीं थे।  गुरुतर जिम्मेदारी थी। मैंने हां भर ली। बिना यह बताए कि उससे क्या काम है, पड़ोसी को सायं को घर पर बुलाया।  उससे पहले उधर-उधर की बात की, फिर चाय पिलाई, साथ में बिस्किट, कुछ नमकीन आदि भी दिए। जैसे मछली को कांटे में फंसाया जाता है, उसी तरह उसके इर्द-गिर्द जाल बिछाया। मैंने उससे पूछा- ‘‘बेटा क्या कर रहा है?’’ मुझे अच्छी तरह पता था कि बीए करने के बाद उसे कहीं कोई नौकरी नहीं मिली। उसने बहुतेरी कोशिश कर ली, किसी दलाल को पैसे भी दिए लेकिन काम फिर भी बना। पैसे भी आधे-अधूरे मुश्किल से पटे। उसने निराशा मेंं मुंह लटका लिया- ‘‘भाई साहब आप ही कुछ करिए। मैंने कंधे पर हाथ रख कहा- ‘‘देखो एक जुगाड़ है, लग गई तो ठीक है, नहीं तो कोशिश में क्या बिगड़ा जा रहा है। बेटे को कल भेजना, कुछ करता हूं।’’ वह जाने लगा तो मैंने धीरे से उसकी जेब की ओर इशारा कर कहा-‘‘ इसमें क्या है? आजकल गांव में तुम्हारे इस कागज के पुर्जे की बड़ी चर्चा है। वह मुस्कराया, बोला- ‘‘बड़े मतलब की बात है। आप मेरे अपने आदमी हैं, इसलिए आपको बता रहा हूं, किसी और को मत बताना। हम दोनों इसका फायदा उठा लेंगे।’’
झट से उसने अखबार की कटिंग निकाली और तोते की तरह सब बता दिया-‘‘प्रधानमंत्री ने आह्वान किया है कि बेटी के जन्म पर पांच पेड़ लगाओ, उसके बड़े होने तक उनकी उतनी कीमत हो जाएगी, जितने में शादी होगी, बहुत सारा पैसा आएगा। मैंने सोचा है कि बेटी हो या बेटा, कुछ मत हो, पेड़ तो तब भी लगा ही सकते हैं। बड़े होने पर उन्हें कटवा कर अच्छा खासा मुनाफा कमा सकते हैं।’’ मैंने मन ही मन कहा धत तेरे की। खजूर से गिरा बबूल पर अटका। मन में तो आया गाल पर जोर से एक चांटा जड़ दूं।  फिर मन मसोस कर रह गया, कहा- ‘‘तू हमेशा उल्लू का उल्लू ही रहेगा। पेड़ तो लगा लेगा पर काटेगा क्या तेरा बाप? पांच पेड़ गंगाजी में लगाकर पुण्य कमाने की बात अलग है, अपनी ही जमीन पर पेड़ लगाकर उन्हें काटने की बात और है? जमीन आसमान का अंतर है।’’
अब सुन- ‘‘मैंने पांच पेड़ कटवाए थे। ट्रैक्टर ट्राली में लादकर चिरवाने जा रहा था रास्ते में पुलिस ने पकड़ लिया। खूब मिन्नतें खाई, सिफारिश भी कर करवाई, फिर भी पैसे देने पड़े तब मुश्किल से छोड़ा। चिरवाने के बाद लकड़ी घर ला रहा था, वन विभाग के कर्मचारियों ने पकड़ लिया। सारी लकड़ी जब्त कर ली, मेरे खिलाफ मुकदमा दर्ज करा दिया।  तब से तारीख पर तारीख को जाता रहता हंू।  जितने के पेड़ नहीं थे, उससे ज्यादा ऊपर से खर्च हो गए, पेड़ गए, वे अलग। त्’’
‘‘अब मैंने सोचा कानून कायदे से काम करते हैं। अन्य पांच पेड़ कटवाने के लिए तहसील मुख्यालय पर जाकर रेंजर को दरख्वास्त दी। उसने उसमें तमाम कमियां बता दीं। मुझसे कहा कि खसरा-खतौनी की नकल इसके साथ नत्थी करो। इसके बात आगे की बात होगी। कई दिन तक लेखपाल और तहसील के चक्कर लगाता रहा। इसके बाद बड़ी मुश्किल से ये दोनों कागजात हासिल कर सका। रेंजर कार्यालय में गया तो वे नहीं थे, कर्मचारियों ने बताया कि दो दिन बाद आना, साहब बाहर गए हैं। दो दिन बाद साहब से मिला। उन्होंने खसरा-खतोनी की नकलें रख ली। बोले- ‘‘अब दरख्वास्त पूरी हुई।’’ कई दिन तक परमीशन का इंतजार करता रहा, बाबा आबे तो घंटा बाजे। जब परमीशन नहीं आई तो फिर रेंजर कार्यालय गया। साहब बोले, थोड़ा इंतजार करो। कार्यालय में लोग बिजी हैं। किसी दिन एक आदमी भेजकर मौका मुआयना करवा देते हैं। मैंने कहा कि मौका मुआयने की क्या जरूरत है? मैं आपसे सही-सही कह रहा हूं, इसमें रत्ती भर भी झूठ नहीं है। मेरी कोई बात झूठी निकले तो सो सजा चोर को वह मुझे दी जाए।  फिर दरख्वास्त के साथ खसरा खतौनी की नकल है। इनमें पेड़ों का विवरण अंकित है। उसने मुझे ऐसी फटकार लगाई, मेरी तो सिट्टी- पिट्टी गुम हो गई। रेंजर बोला-सरकारी कामकाज है,  कायदे-कानून से होगा। अब जाओ घर। कई तक तक फिर कोई नहीं आया तो फिर रेंजर कार्यालय गया। मरता क्या न करता। रेंजर से गिड़गिड़ाया। उसे कुछ दया आई। अच्छा चल, तेरा काम करे देता हूं। एक कर्मचारी को बुलाया, उसे मेरे साथ करते हुए कहा कि इन्हें अपने साथ ले जाओ  और मौका मुआयना के बाद यहां वापस कर जाना। कर्मचारी को मोटर साइकिल पर बैठाकर अपने गांव लाया। कर्मचारी ने कहा- ‘‘पेड़ों के फोटो होने हैं। मैंने कहा कि रेंजर साहब ने तो बताया नहीं था, आप ये नयी बात क्यों कर रहे हो?’’ वह गुर्राया- ‘‘जो मैं कह रहा हूं, वह सब करो वरना परमीशन नहीं मिलेगी।’’ मैंने उसकी बात मान ली। गांव में कहां फोटोग्राफर था? दूर के कस्बे से फोटोग्राफर लाकर पेड़ों के साथ खड़े हो फोटो कराए। कर्मचारी ने पेड़ों के तने की मोटाई नापने के लिए इंचीटेप मांगा। मेरे पास वह भी नहीं था। इसके बिना भी परमीशन नहीं मिलनी थी। फिर दौड़ा-दौड़ा टेलर की दुकान पर गया. खुशामद करके इंचीटेप लाया।  इस बीच कर्मचारी भुनभुनाता रहा, काफी टाइम खराब कर दिया। मुझे पहले ही मालूम होता कि आपके पास कोई इंतजाम नहीं है तो हरगिज नहीं आता, दफ्तर में बहुत सारा काम पड़ा है, कौन करेगा उसे। कर्मचारी के हाथ जोड़े। जेब गरम की, फिर भी वह भुनभुनाता ही रहा। मोटर साइकिल पर बैठाकर उसे फिर रेंजर कार्यालय  पहुंचाया। रास्ते में उसने बताया कि ‘‘अभी आपकी दरख्वास्त में कई चीजों की कमी है’’ क्या ? -‘‘वोटर आईडी लगेगी।  शपथ पत्र भी चाहिए। शपथ पत्र पर फोटो लगा होना चाहिए।’’ मैंने उसकी बात को सुना और यह मानते हुए अनसुना कर दिया कि जब साहब ने दरख्वास्त कंपलीट बता दी थी तो फिर इसका क्या। मैं उसे रेंजर कार्यालय के बाहर उतार कर घर आ गया। इत्मीनान से इंतजार करने लगा कि अब तो परमीशन मिल ही जाएगी। कई दिन तक तक जब परमीशन का पता नहींं लगा तो फिर भागा-भागा रेंजर कार्यालय गया। वहां के बाबू ने बताया कि आपको पहले ही बता दिया था कि वोटर आईडी, फोटो लगा शपथपत्र और लगेंगे लेकिन तुमने  परवाह ही नहीं की। मुझे यह पहले ही बता दिया होता तो अब तक दे नहीं देता, ऐसी गुस्सा आई कि साले को ठोक दूं। लेकिन यह सोच कर कि खामखां का झमेला खड़ा हो जाएगा, परमीशन तो लेनी ही है। मैं फिर गांव आया, वोटरआईडी तलाशी। फिर फोटो करवाए। तहसील मुख्यालय जाकर शपथ पत्र बनवाया। ये सब बाबू के मुंह पर मार आया। चलो अब तो परमीशन मिल जाएगी। कई दिन बाद फिर पता किया तो रेंजर कार्यालय में बताया कि अभी सौ पेड़ के हिसाब से पांच सौ रुपये की फीस लगेगी। मैंने कहा- ‘‘फीस काहे की? बाबू ने कड़क कर कहा-‘‘लगती है, तेरे घर का कानून है?, इसकी रसीद मिलती है। मैंने माथा पीट लिया,  हे भगवान, पेड़ कटवाने के लिए जाने अभी और क्या-क्या करना पड़ेगा। इसकी जरूरतें तो सुरसा के मुंह की तरह बढ़ती ही जा रही हैं।  पांच सौ रुपये जमा दिए। रसीद के बारे में यह कहकर टाल दिया कि फिर आकर ले जाना। अभी संबंधित कर्मचारी नहीं है, वह छुट्टी गया है। वह आएगा तभी रसीद कटेगी या तभी जमा करा देना।  इसके लिए फिर आना पड़ता, लिहाजा रुपये बाबू के पास छोड़ दिए। यह मानकर कि अब तो गंगाजी नहा लिया। घर चला आया। १५ दिन बाद पता किया तो रेंजर कार्यालय में बताया, दरख्वास्त जिला मुख्यालय स्थित डीएफओ कार्यालय भेज दी है। जैसे ही परमीशन आ जाएगी,  ले जाना।
कागज अपने आप तो चलता नहीं है, उसे चलवाना पड़ता है। इसलिए तब से डीएफओ कार्यालय के चक्कर लगा रहा हूं। कभी डीएफओ नहीं मिलते, बताया जाता है कि बैठक में गए हैं तो कभी छुट्टी पर। कभी कार्यालय में मिल जाते हैं तो व्यस्तता की बात कहकर मुलाकात से मना कर देते है। बाबुओं की खुशामद करते-करते परेशान हूं। परसों उन्होंने बताया कि  साहब ने मेरी फाइल देख ली है। इसमें एक हजार रुपये अल्प बचत में जमा नहीं कराए गए है। ये रुपये एक साल बाद तब लौटेंगे जबकि इनके बदले १५ पेड़ लगा दिए जाएंगे। फाइल रेंजर के पास लौटा दी गई है। इसके बाद कहीं से उधार लेकर एक हजार रुपये डाकखाने में जमा कर दिए हैं लेकिन परमीशन अभी तक नही मिली। पता नहीं अभी इसके लिए क्या -क्या पापड़ बेलने पड़ेंगे? चार महीने हो गए हैं।  आने-जाने और कागज खाना पूर्ति में दस हजार रुपये से ज्यादा खर्च हो गए हैं।  बोलो- ‘‘अब भी पेड़ लगाओगे?’’ पड़ोसी ने अखबार की कटिंग चिदी-चिदी कर फेक दी और निराश भाव से चला गया।

संपर्क- डा. सुरेंद्र सिंह
751 सेक्टर 5, आवास विकास कालोनी
सिकंदरा, आगरा-7
मो.-9690658001



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