बढ़ता चुनाव खर्च

   
              डा. सुरेंद्र सिंह
चुनाव खर्च देश का सबके बड़ा मुद्दा है, यही बहुत सी समस्याओं की जड़ है। चाहे योग्य पदों के लिए अयोग्य लोगों की •ार्ती हो, चाहे जीवन रक्षक दवाओं के नाम पर घटिया दवाओं की खरीद, चाहे कोई घटिया निर्माण कार्य, चाहे अमीर-गरीब के बीच बढ़ती हुई खाई हो, इस के कारण है।  बढता चुनाव खर्च ही •ा्रष्टाचार की जननी है। लोग •ा्रष्टाचार के खात्मे के लिए लोकपाल की तो मांग करते हैं लेकिन चुनाव खर्च के मुद्दे पर मौन हो जाते हैं। लोकपाल इतनी बड़ी  समस्या का क्या उखाड़ लेगा? कुछ बड़े नेताओं की गर्दन यह •ाले ही नाप दे लेकिन समस्या को जड़ से नहीं समाप्त कर सकता। जब तक चुनावों में ज्यादा खर्च की यह व्यवस्था है, •ा्रष्टाचार बना रहेगा।
चुनाव का सरकारी खर्च तो सरकार करती है। इससे ही वह पस्त होती रही है।  इलेक्ट्रानिक वोटिंग मशीनों के इस्तेमाल से इसमें कुछ कमी आई है। लेकिन प्रत्याशियों द्वारा किए जाने वाला प्रचार खर्च बढ़ता ही जा रहा है। पुराने जन प्रतिनिधि बताते हैं कि शुरूआत में कुछ सौ रुपये में विधायक और हजारों में खर्च करके संसद का चुनाव जीत जाते थे। तब इतना •ा्रष्टाचार नहीं  था। लेकिन अब इसका खर्चा बेशुमार होता जा रहा है।  समस्या के हल के लिए कई बार यह सुझाव आया है कि क्यों न सरकारी खर्च पर ही चुनाव लड़े जाएं। सरकार की जितनी आदमनी होती है, उसका अधिकांश हिस्सा सरकार पर ही खर्च हो जाता है। केंद्र के बजट का 85 प्रतिशत हिस्सा सेलरी, पेशन, ब्याज, पेट्रोलियम परअनुदान,रक्षा खर्च और पुरानी योजनाओ पर खर्च हो जाता है।  थोड़े पैसे से विकास होता है,उसके लिए अलग से  टैक्स लगाकर वसूली होती है।  राज्य सरकारों के बजट •ाी करीब-करीब यही स्थिति है। यदि प्रत्याशियों का चुनाव खर्च •ाी इस पर डाल दिया गया तो सरकारें अपने लिए ही बनकर रह जाएंगी। कोई •ाी जनकल्याण उसके बूते का नहीं रह जाएगा। या फिर जनता पर टैक्सों का और बोझ डालना होगा जोकि मौजूदा स्थिति में उचित नहीं है।
प्रत्याशियों का चुनाव खर्च सरकार बहन करेगी तो अनेक तरह की विसंगतियां •ाी पैदा होंगी। कई तरह के सवाल उठेंगे।  यह पैसा मान्यता प्राप्त राजनीतिक दलों के प्रत्याशियों को मिलेगा या पंजीकृत दलों को? जीतने वालों को मिलेगा या स•ाी को? ऐसे में सरकारी पैसा हड़पने के लिए तमाम फर्जी राजनीतिक दल पैदा हो सकते हैं। चुनाव आयोग ने हाल ही में तमाम ऐसे दलों का पंजीकरण समाप्त किया है जो चुनाव तो लड़ते नहीं थे लेकिन राजनीतिक दल होने का सरकारी ला•ा ले रहे थे। सरकारी धन से चुनाव लड़ने की हालत में चुनाव खर्च द्वारा कालेधन की समस्या और बढ़ सकती है। सरकारी पैसा काला धन बन सकता है।
हाल ही में चुनाव आयोग के प्रस्ताव पर •ााजपा सरकार ने आम बजट के साथ यह प्रावधान किया है जिसमें कोई राजनीतिक दल एक व्यक्ति से दो हजार रुपये से ज्यादा नकद में चंदा नहींं ले पाएगा। इससे ज्यादा धनराशि चेक से या आन लाइन लेनी पड़ेगी। देखने में यह बात बहुत ही आकर्षक लग रही है कि इससे अब चुनाव चंदा के लेन-देन में पारदर्शिता आएगी। दो हजार से ज्यादा चंदा लिखित- पढ़त में रहेगा। लेकिन यह इतना आसान नहीं है। यदि राजनीतिक दल पारदर्शिता के इतने ही समर्थक होते तो सूचना के अधिकार के तहत चंदे की जानकारी देने से क्यों कतराते? माना जा रहा है कि चुनावी चंदे के मामले में सरकार का यह आदेश •ाी  खास प्र•ाावकारी नहीं होगा। अ•ाी तक राजनीतिक दलों को किसी से •ाी बीस हजार रुपये तक लेने की छूट है जबकि वास्तव में लाखों की धनराशि एकमुश्त लेते रहे हैं।
चुनाव के लिए प्रत्याशियों के चुनाव खर्च की सीमा बढ़ती रहती है। चुनाव आयोग ने वर्ष 2014 में खर्च की सीमा लोक स•ाा क्षेत्र के लिए उत्तर प्रदेश जैसे बड़े राज्यों में 40 लाख से बढ़ाकर 70 लाख रुपये और छोटे राज्यों में 22 लाख से बढ़ाकर 54 लाख रुपये कर दी है। इसी तरह विधान स•ाा चुनाव के लिए प्रत्याशी के खर्च की सीमा बड़े राज्यों में 28 लाख और छोटे राज्यों में 22 लाख रुपये कर दी है। वास्तव में प्रमुख प्रत्याशियों का खर्च इस सीमा से कहीं बहुत ज्यादा होता है और चुनाव आयोग को ब्योरा सीमा से •ाी काफी कम का दिया जाता है। तमाम सीनियर अधिकारियों की प्रेक्षकों से निगरानी कराने के बावजूद यह सब धड़ल्ले से होता है।  कुछ प्रत्याशी एक लोक स•ाा क्षेत्र के चुनाव खर्च में पांच-सात करोड़ रुपये तक फूंक देते हैं। इसके अलावा ढाई-तीन करोड़ तक टिकट खरीदने में खर्च कर देते हैं।  इसी तरह कुछ प्रत्याशियों के लिए विधान स•ाा चुनाव का खर्च •ाी करोड़ों रुपये में बैठता है।
अब सवाल यह है कि क्या कोई आम आदमी जो •ाले ही काबिल,मेहनती और ईमानदार हो, वह विधान स•ाा या लोक स•ाा का कोई चुनाव अपने दम पर लड़ सकता है? सरकार की ओर से तय है कि प्रतिवर्ष ढाई लाख रुपये (नए बजट के अनुसार तीन लाख) से ज्यादा आदमनी पर व्यक्ति को इनकम टैक्स देना होगा। जितनी ज्यादा आमदनी होगी, उतना ही ज्यादा टैक्स। कुल मिलाकर स्थिति ऐसी नहीं है कि कोई ईमानदार आदमी चुनाव लड़ सकने के बारे में सोच •ाी सके, चुनाव लड़ना तो बहुत दूर है । चुनाव लड़ना है तो बाहर से रुपये चाहिए। रुपये पेड़ों पर नहीं लगते। स्वार्थी दुनिया में कोई मुफ्त में चंदा नहीं देना चाहता। सबके अपने-अपने हित हैं। जो राजनीतिक दल धनपतियों से चंदा लेकर अपने प्रत्याशियों को चुनाव लड़ाएगा,वह सबसे पहले किनके हित में काम करेगा, ऐसे ही जो जनप्रतिनिधि धनपतियों से चंदा लेकर चुनाव लड़ेगा,वह किसकी बजाएगा? यह किसी से छुपा नहीं है।
यदि •ा्रष्टाचार खत्म करना है तो चुनाव  की व्यवस्था से •ा्रष्टाचार को खत्म करना होगा। इसके लिए सबसे ज्यादा जरूरी हैं छोटे राज्य, छोटी लोकस•ााएं , छोटी विधान स•ााएं, छोटे जिले, छोटी तहसील और छोटे विकास खंड तथा थाने। चुनाव में सबसे ज्यादा खर्च यातायात पर खर्च किया जाता है। सैकड़ों गाड़ियां लगानी पड़ती हैं। तमाम कार्यकतार्ओं की •ाीड़ जुटानी पड़ती है। उनके खाने-पीने के खर्च पर •ाी काफी पैसा खर्च होता है। कुछ प्रत्याशी तो ढाबे खुलवा देते हैं।
मौजूदा समय में बड़े राज्यों के लोकस•ाा क्षेत्र इतने बड़े  हैं जिनमें कोई प्रत्याशी बिना चार पहिया वाहन के •ा्रमण नहीं कर सकता है।  चाहे लोकस•ाा क्षेत्र हो या विधान स•ाा क्षेत्र, आबादी और क्षेत्रफल के हिसाब इतने हों कि जनप्रतिनिधि उसके लोगों को ठीक से जान सके। लोग •ाी उसके बारे में् जान सकें। प्रत्याशी मोटर साइकिल, साइकिल या स्कूटर से  •ाी  उन तक पहुंच सके, लगातार उनके संपर्क में रह सके। यदि कोई अपनी मोटर साइकिल से प्रचार कर लोकस•ाा और विधान स•ाा में पहुंच सकेगा तो वह •ा्रष्टाचार से •ाी बच सकेगा। जब बिना किसी ताम-झाम के लोक स•ाा और विधान स•ााओं के चुनाव लड़े जा सकेंगे त•ाी ईमानदार और काबिल लोग चुनाव मैदान में आने की हिम्मत जुटा सकेंगे।
दुनिया के अनेक देशों में छोटे-छोटे  राज्य, छोटे-छोटे जिले, लोकस•ाा और विधान स•ाा क्षेत्र छोटे-छोटे हैं। प्राचीन काल में जब •ाारत को सोने की चिड़िया कहा जाता था,तब छोटे-छोटे ही राज्य थे। तब राजा •ोष बदलकर जनता के दुख-सुख जान सकता था। अब जनता के इस महासमुद्र में किसी जन प्रतिनिधि के लिए •ाी ऐसा करना मुश्किल है। इसी कारण चुनाव व्यक्ति  की काबिलियत पर नहीं बल्कि जाति, धर्म और दलों के आधार पर ही प्रमुख रूप से लड़े जाते हैँ।
सारे राजनीतिक दलों का लिए चुनाव खर्च धन्ना सेठों से या सरकार की योजनाओं में गड़बड़ी करके आता है। अपवाद के तौर पर कुछ लोग अपनी संपत्ति बेचकर •ाी चुनाव लड़ते हैं। ऐसे लोग चुनाव जीत जाने पर उसकी •ारपाई करते हैं।  तमाम राजनेता सरकारी योजनाओं में गड़बड़ी करने के मामले में पकड़े जा चुके हैं, कुछ एक सजा •ाी पा चुके हैं। वे ही लोग फिर राजनीतिक मैदान में हैं। किसी ने अपने पुत्र को उतारा है तो किसी ने पत्नी और अन्य परिजनों को। खचीर्ली राजनीति होने के कारण ईमानदार और कुशल लोग तमाशबीन बनने के लिए अ•िाशप्त हैं। यदि चुनाव खर्च की समस्या नहीं होती तो बहुत से ईमानदार लोग राजनीति में स्थान पा सकते।

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