पंडितानी-2


                                 
                                                   डा. सुरेंद्र सिंह
यह दुनिया  एक प्रकार का जंगल ही है। इसमें तरह -तरह के लो ग हैं; कोई नाटा, कोई मोटा, कोई लंबा, कोई भोला, कोई चालाक, कोई लूगा, कोई लंगड़ा, कोई अंधा, कोई कोढ़ी, कोई गिरगिट, कोई चोर-उचक्का, कोई ़डकैत, कोई साधु, कोई सफेदपोश,  कोई तस्कर, कोई अपहर्ता, कोई काला, कोई गोरा, कोई बीमार, कोई औसत स्वास्थ्य का तो कोई पहलवान, कोई स्वार्थी, कोई काम से काम रखने वाला, कोई परोपकारी, कोई धोखेबाज, कोई मंदबुद्धि, कोई विद्वान, कोई कुरूप तो कोई रूपवान, कोई फटेहाल, कोई मालामाल। किसी की सूरत किसी से नही मिलती  किसी की नाक लंबी तो किसी की ठोड़ी, किसी की आंखें बड़ी तो किसी की धंसी हुई। करोड़ों प्रकार हैं, इन्हीं में से एक पंडितानी है। कुछ लोगों  की  हम दोबारा सूरत नहीं देखना चाहते लेकिन पंडितानी  को  आप भुलाए नही  भूल सकते। वह अधेड़ से कुछ ही ज्यादा  की हो चली है, वृद्ध तो हरगिज नहीं कह सकते।  बाल सफेद हो चले हंै। पैरों से चलने में कु छ तकलीफ भी होती है। पर उसकी   किसी भी परिस्थिति  में खुश रहने की  आदत और बात-बात पर मुस्कराहट उसके चेहरे की छुर्रियां छीन लेती हंै । दो  बेटे हैं, दोनों कमाते हैं और अपने पर ही खर्च कर डालते हैं। नाती- नातिन की जिम्मेदारी पंडितानी उठाती है। अपनी खुद की  दो बेटियां हैं, एक की शादी हो गई, दूसरी  एमए कर बीएड की तैयारी कर रही है। यह सब पंडितानी के बल पर चल रहा है।   भगवान का दिया बहुत कुछ है और कुछ खास भी नहीं। गांव में थोड़े से खेत हैं, उनसे साल में कोई 72 हजार रुपये आ जाते हैं। इसके अलावा वह आवारा घूमती गायों को ताकती रहती है कि यह झुक रही है  एक- दो महीने में व्याहेगी तो उसे पकड़कर उसकी खूब सेवा करती है, जब वह ब्याह जाती है तो उसके दूध को बेच लेती है। इसके अलावा छोटी-मोटी पंडिताई भी कर लेती है।  यही उसकी मुख्य आमदनी है। पति घर के बाहर दोस्तों के साथ दिन भर ताश की गड्डियां फैरता है। भरी जवानी में जब उसने कभी एक डब्बल पंडितानी के हाथ पर नहीं रखा, अब इस उम्र में कैसे उम्मीद कर सकते हैं।  शादी के बाद ही उसे  ऐसी बीमारी ने घेर लिया कि वह चाह कर भी कुछ नहीं  कर सका। पंडितानी पति को परमेश्वर मानकर उनकी बड़े मनोयोग से सेवा करती है, उनकी हर इच्छा पूरी करती है। उसे कब क्या पसंद है क्या नहीं, छोटी-छोटी बातों का ख्याल रखती है। मोहल्ले वाले इस बात के गवाह हैं कि  आपस में लड़ाई - झगड़ा तो दूर कभी तू-तू मैं-मै भी नहीं हुई।  शहर में घर है लेकिन कहने भर को, परिवार का सिर ढक रहा है । एक बार आवास विकास परिषद से आवंटन हो गया, फिर उसकी वह एक भी किश्त नहीं चुका पाई। जैसा आवंटित हुआ था, बीस साल बाद भी वैसा का वैसा ही।  चुकाए भी तो कैसे ? यही कौन सी कम गनीमत है कि वह भरे- पूरे परिवार का खर्चा चला रही है। ऊपर से परोपकारी भी है। लोग रास्ते में जोरों से कराहते को छोड़ कर मुंह्रफेरते हुए निकल  जाते हैं पर वह दूर से भी किसी की तकलीफ सुन ले तो  उससे रहा नहीं जाता।  अपने को  संकट में डाल कर भी  मदद से पीछे नहीं हटती, अपने पर नहीं हो तो दूसरों से उधार लेकर भी मदद करती है। गांव के और आसपास के रिश्तेदार उसके यहां आए- दिन आते ही रहते हैं,कभी कोई अस्पताल में इलाज के लिए तो कभी कोई किसी अन्य काम के लिए। पंडितानी किसी की आवभगत में कोई कमी नहीं रखती।  उसकी इस आदत के लिए आप कुछ भी कह लीजिए, पीठ-पीछे उसकी बुराई करने वालों की कमी नहीं है, उसे वेबकूफ, पागल, गरीब कुछ भी कहते हैं, पर उसने कभी किसी की परवाह नहीं की। उसका एक ही तकिया कलाम है-अपना धर्म अपने हाथ।
गर्मी के दिन थे, सूरज सिर के ऊपर से 90 डिग्री का कोण बनाते हुए  45 डिग्री सेल्सियस की आग बरसा रहा था। पूरी गली सुनसान थी। पत्ता भी नहीं ़खड़क रहा था। किसी की क्या मजाल, ऐसी भयंकर आग में कोई घर से बाहर निकलने  का दुस्साहस करे, लेकिन पेट की आग उससे भी सबल थी जिसके चलते निनुआ सब्जी की ठेल लेकर मोहल्ले में फेरी लगा रहा था। -‘‘ ले लो जी  काशीफल, लौकी, तोरई, बैंगन, आलू, प्याज, हरी मिर्च’’ की आवाज लगाते-लगाते  थक गया था।  गला भी  सूख  रहा था। इसलिए  चुप था।  ठेल में कुछ सब्जी बची थी।  इसमें से कुछ और बिक जाए तो वह भी घर चला जाए क्योंकि अब जो बच जाएगी, वह बेकार ही जाएगी। पानी के छिड़काव से उसे बचाने की एक सीमा है। यदि यह नहीं बिकी तो उसके लिए यह घाटे का सौदा होगी। वह सूरज निकलने से कोई दो घंटा पहले पैदल-पैदल ठेल लेकर बड़ी मंडी जाता है। घर से कोई पांच किलोमीटर बड़ी  मंडी है। वहां से आकर आसपास के मोहल्लों ृकी गली-गली में आवाज लगाकर सब्जी बेचता है। वह दिन भर में करीब बीस किलोमीटर तो पैदल यात्रा कर लेता होगा।  इतनी मेहनत करने पर भी कुछ नहीं बचे तो आत्मा को कष्ट होता है।
 इसी उधेड़बुन में वह पंडितानी के घर के सामने पेड़ की छांव देखकर ठिठक गया। निनुआ के सिर से पैर तक पसीने की धार देखकर पंडितानी ने आवाज लगाई-‘‘बाबा,  ओ बाबा, तुम तो पसीना में इतने नहा रहे हो, आ जाओ  सुस्ता लो, पानी पी लो।’’ बाबा का शरीर भी जबाव दे रहा था सुबह से कुछ खाया- पिया नहीं था। वह पं़िडतानी के एक ही बोल में घर के बरामदे में आ गया, पंखा की हवा ली और ठंडा पानी पीकर तृप्त हो गया। पंडितानी ने पूछा-‘‘ घर में कौन-कौन है, बालक-बच्चे नहीं हैं क्या जो इस उम्र में ठेल लगानी पड़ रही है’’?
निनुआ-‘‘हैं तो सब बहनजी, दो बेटे हैं, उनकी बहुएं हैं वे लोग अपना ही पेट भर लें, यही बहुत है। मेरी एक बेटी है, उसके हाथ पीले कर दूं, तब चैन से बैठूंगा’’।
-‘‘ बाबा बहुत चिंता मत करो, सब का परमात्मा है, आदमी  कौन होता है, वही सबके लिए इंतजाम करेगा। जिसने चौंच दी है, वही चुगा देगा’’ा।
अपनी सी ही व्यथा जानकर पंडितानी  को दया आ गयी, उसने बाबा को चाय भी पिला दी। निनुआ भी मुफ्त में कहां अहसान लेने वाला था। उसने ठेल से  झट कुछ सब्जी पंडितानी को  यह सोच कर दे दी कि ये अब बेकार ही जानी है। हंसी-खुशी घर को वापस चल दिया। पंडितानी ने जाते-जाते कहा-‘‘बाबा कभी-कभी आते-जाते रहना’’।
 निनुआ खुश था, कौन रोज-रोज उसके धंधे में मुनाफा होता है। और एक दिन न सही।  दुनिया में ऐसे  अच्छे लोग भी हंै।ं बहुत से खरीददार जहां  बात-बात पर अपमानित करते हैं, घर के बाहर ठेल लगाओ तो दुत्कारते हैं। कुछ जो ज्यादा पैसे वाले हैं, पहले तो पैसे कम करवाते हैं और कम करो, और कम करो, क्यों ठग रहा है, मंडी में तो इससे बहुत कम दाम हैं।  तू नहीं देता दूसरे से ले लेंगे।  फिर ज्यादा तुलवाने की भी कोशिश करते हैं-और दे, थोड़ा और डाल, सोने की तरह तोल रहा है। उनका वश चले तो वह उसकी  ठेल ही रखवा लें। उसे पंडितानी से अपनापन लगा। जहां मन को सुकून मिले वहां व्यक्ति खुद व खुद चला जाता है। इस कारण वह दूसरे मोहल्लों में सब्जी बेचने के बाद अगले दिन दोपहर को फिर से पंडितानी के घर के सामने ठेल लगाने  आ गया। पंडितानी आई,  हालचाल पूछे, सब्जी खरीदी, पानी भी पिलाया। घर में कुछ देर पंखा की हवा में बैठाया। थके-हारे निनुआ की जान में जान आ गई। अगले जिन पंडितानी ने मोहल्ले के लोगों को आवाज लगाकर-‘‘सब लोग इस बाबा से सब्जी ले लो, बाबा बहुत अच्छे आदमी हैं, किफायत से देंगे’’। उसकी बिक्री करा दी। बाबा ने कुछ सब्जी पंडितानी को मुफ्त में ्ही  दे दी।
अब बाबा की ठेल  आए- दिन पंडितानी के दरवाजे  की ओर मुड़ने लगी।  वह बचने वाली सब्जी उसके घर में  मुफ्त में देने लगा। लोभ दोनों तरफ से था, पंडितानी को मुफ्त में बची-खुची ं सब्जी मिलने लगी तो बाबा को भी चाय पानी और कुछ आराम मिल जाता। कुछ सब्जी तो रोज वैसे ही फैंकनी पड़ती थी। सबसे बड़ी बात यह कि पंडितानी उसके दग्ध मन पर जो मरहम लगाती- ‘‘बाबा सबका भगवान है’’,‘‘ ऊपर वाला सब देख रहा है’’, ‘‘सब वही बेड़ा पार करेगा’’, ‘‘आप चिंता मत करो’’, - ‘‘ कोई परेशानी हो तो हमें बता देना’’ आदि-आदि । इससे उसे बड़ी शांति मिलती, ऐसी सांत्वना मां-बाप के अलावा कभी किसी ने उसे नही दी थी।
निनुआ अब नियमित रूप से पंडितानी के दरवाजे पर आने लगा। घर की आपबीती भी जिक्र करने लगा। फलां बहु ने आज उससे यह कह दिया, फलां ने यह। पंडितानी समझाती -‘‘बाबा  घर-घर चूल्हे माटी के हैं, जमाना बदल गया है,कलियुग आ गया है कलियुग। वे अब आपके साथ ऐसा व्यवहार कर रही हैं, कल को उनके साथ इससे बुरा व्यवहार होगा। साईं के दरबार में बदले कहूं न जाएं’’। ऐसे ही चलते-चलाते एक दिन निनुआ को चार हजार रुपयों की जरूरत पड़ी तो पंडितानी ने कहीं से ब्याज पर लाकर उसका काम चला दिया। पंडितानी  की इस मामले में बहुत साख है, कुछ लोग उसकी एक जुबान पर पैसे देने के लिए तैयार रहते हैं क्योंकि कितनी ही मुश्किल आई पंडितानी ने कभी  किसी का एक पैसा नहीं मारा। हमेशा सूद सहित पूरा पैसा वापस किया।  वह भी चार प्रतिशत मासिक की ब्याज सहित। सूदखोरों को और क्या चाहिए? कई बार पंडितानी के बच्चे लोगों से उधार लेकर भाग गए, उसने उनका भी ब्याज सहित पैसा वापस किया। खैर निनुआ ने वायदे के मुताबिक सूद सहित पैसा वापस कर दिया। पंडितानी ने भी खुश होकर आश्वस्त किया-‘‘ बाबा कभी जरूरत पड़े तो एक से लेकर लाख तक आपकी जबान नहीं गिरेगी’’।
समय बीतता गया। एक दिन वह भी आया जब निनुआ की  बेटी की शादी तय हुई।  निनुआ बहुत खुश था, अब वह अपनी जिम्मेदारी से मुक्त हो जाएगा, लड़का अच्छा मिल गया है, शहर में घर का मकान और प्राइवेट कंपनी में नौकरी।  लड़की अपने घर चली जाएगी तो वह आराम से रहेगा, जब मन आएगा, सब्जी बेचेगा, जब मन आएगा, तब नहीं। शादी के लिए दावत, दहेज, कपड़े-लत्ते, जेवरात, नेग, किराए भाड़े, पांडाल आदि के  लिए पैसों का अनुमान करते-करते उसे पचास हजार रुपये की कमी महसूस हुई। चारों तरफ निगाह फैलाई, कहीं कोई आसरा नहीं मिला तो आखिर में  पंडितानी उसे आशा की किरण के रूप में दिखी। पंडितानी की निगाह में वह पहले ही भरोसेमंद बन चुका था। किसी की भी बेटी की शादी में सहयोग पुण्य का काम माना जाता है। फिर उसे क्या करना था?  इस हाथ से लेकर उस हाथ देना था। उसने उसे चिंता मुक्त कर दिया-‘‘ बेटी की शादी है, किसी की पड़ी नहीं रहती। सब इंतजाम हो जाएगा,जाओ, तैयारियां करो। पचास हजार के लिए मेरी तरफ से निश्चिंत रहो लेकिन समय पर वापस कर देना’’। निनुआ ने अपने सिर पर हाथ रख कसम खाई-‘‘बहनजी आना-पाई वापस करूंगा’’।
निनुआ हंसी-खुशी बेटी की शादी की तैयारियों में जुट गया। एक जिन बारात भी आ गई। धूम धड़ाके से बाजे बज रहे थे, नाते-रिश्तेदार नए-नए कपड़ों में  इकट्ठे एक- दूसरे से मिल-जुल कर चहक रहे थे।  कुछ आपस में शिकायत कर रहे थे कि वह उनके बेटे की शादी में नहीं आए तो कुछ आगे होने वाली बेटी की  शादी के लिए अभी से न्योता दे रहे थे,- ‘‘भूल मत जाना,  शादी का कार्ड भी भेजूंगा’’।  आपस में इस तरह की भी शिकायतें भी कम नहीं थी, - ‘‘ईद का चांद हो रहे हो, अब तो शादी-व्याह में ही दिखते हो’’।  बच्चे उछल-कूद में मस्त थे, आज उन्हें कोई डांटने फटकारने वाला नहीं था। बरात चढ़ रही थी, महिलाएं दूल्हे की तारीफ कर रही थी- ‘‘लड़का तो अच्छा है, दोनों की जोड़ी खूब जमेगी।’’ कुछ महिलाएं बरातियों की वेशभषा की समीक्षा कर रही थीं,-‘‘ भैन यह देखो,आगे से इस लाईन में तीसरों कैसो जमि रहो है और फलां तो बिल्कुल बेकार है। इस पर तो कपड़े भी सऊर के नहीं हैं’’। -‘‘काम बारो होगो’’-दूसरी सुर में सुर मिलाते हुए जबाव देती।  बराती पक्ष के लोगों में कुछ लड़कियों पर लाइन मार रहे थे तो कुछ  जल्द से जल्द दावत की जुगाड़ में थे। लड़के के दोस्त यह पता करने की कोशिश  में कि दरवाजे पर उसे क्या मिल रहा है? एक ने दूल्हे के कान में फूंक मारी- ‘‘मोटर साइकिल तो नहीं है ’’। फिर क्या था, रंग में भंग पड़ गई। मोटर साइकिल को लेकर सारा रायता फैल गया। बरात जहां की तहां रोक दी गई। दूल्हन के बाप को बुलाया गया। वह हाथ जोड़ते हुए ऐसे आया जैसे अपराधी  न्यायाधीश  की अदालत में।  निनुआ ने सफाई दी-‘‘ मेरी आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं है, वैसे भी मोटर साइकिल की तय भी नहीं हुई थी।’’
 उन्होंने कहा-‘‘ तय तो कुछ नहीं हुआ था, मोटर साइकिल तो ऐरा-गैरा भी दे देते हैं।  हमारे यहां तो और बड़े रिश्ते भी आ रहे थे, हमें क्या मालूम, आप इतना भी नहीं कर पाओगे ’’। समझाने-बुझाने की भी कोशिशें भी हुर्इं लेकिन सब बेनतीजा रहीं।  कहते तो हंै ‘‘गरीब की लुगाई सब की भौजाई’’ लेकिन यहां बेटी का बाप सबका साला बना हुआ था । आखिर में निनुआ को ही झुकना पड़ा-‘‘ऐसी बात है तो यह भी  दूंंगा’’।
-‘‘कौन सी’’? दूल्हे के पक्ष ने कड़क कर कहा।
-‘‘मेरी जितनी सामथ्र्य है, उतना तो कर दूंगा, आर्प ंचता मत करो’’
-‘‘मोटर साइकिल तो  चालीस-पैंतालीस हजार रुपये की भी आती  है लेकिन उससे काम नहीं चलेगा’’
दूल्हे  ने कहा-‘‘हमें फलां मोटर साइकिल चाहिए, 75 हजार रुपये की है’’।
75 हजार रुपये के लिए बात बिगड़ी जा रही थी, यदि बरात लौटती तो बदनामी होती, नुकसान अलग होता। फिर दोबारा से शादी के लिए इंतजाम करने की बूढ़े निनुआ में सामथ्र्य नहीं थी। वह सोचने-विचारने लगा।  फिर कुछ सोच कर हां कर दी। 
उसने हां तो कर दी लेकिन पैसे गांठ में नहीं थे। कई नाते-रिश्तेदारों से पहले ही  ले चुका था। दोबारा से उन्हें टटोला तो सबने  मना कर दी। बोले-‘‘इतने पैसे लेकर कौन चलता है’’। किसी ने कहा-‘‘ पहले कहते तो कहीं से जुगाड़ करते, इतनी जल्दी  हाथ पर सरसों  नहीं उगा सकते’’। पंडितानी शादी में आई हुई थी, वह उसे एकांत में ले गया, सारी व्यथा बताई -‘‘75 हजार रुपये के कारण बारात लौटी जा रही है, बहनजी अब आपके हाथ में इस घर की लाज है’’। वह पंडितानी के पैरों में पड़ने लगा-‘‘ कैसे भी लाज रख लीजिए, दो महीने में पाई-पाई चुका दूंगा। ’’। पंडितानी के मन में आया मना कर दे, कोई नाते-रिश्तेदारी तो है नहीं, जान-पहचान ही तो है। इसने नहीं चुकाए तो?   कौन गारंटी लेगा?  फिर लड़की की ओर देख कर उसका मन बदल गया।  पंडितानी खुद लड़की वाली थी, वह उसकी  पीड़ा  अच्छी तरह समझ रही थी।  -‘‘देखो कोशिश करती हूं’’। झट उसने बगल में से फोन निकाला, सूदखोर को मिलाकर-‘‘भाई साहब, एक बात की बात पड़ गई है,75 हजार रुपये के कारण लड़की की बारात लौटी जा रही है, मेरी  गारंटी है, ये नहीं देंगे तो मैं दूंंगी, चाहे मुझे अपना घर बेचना पड़े’’। पंडितानी बात की धनी थी, साहूकार पहले भी कई बार आजमा चुका था। उसने तुरंत हां कर दी। आधे घंटे के भीतर पैसे पहुंच गए। मोटर साइकिल भी आ गई। फिर राजी- खुशी से शादी हुई।  सबने खूब दावत का आनंद लिया। बरातियों ने मेवायुक्त दूध से कुल्ले किए तो लड्डओं की खूब फिकाई हुई। डीजे पर डांस हुआ, दोनों ही पक्ष के लोग खूूब नाचे।   लड़की विदा हो गई। इसके बाद दोबारा भी विदा हो गई।  पंडितानी की खूब जयजयकार हुई।
एक महीना बीता, दूसरा महीना बीता, जब तीसरा बीतने लगा। साहूकार ने ध्यान  दिलाया तो  उसकी तंद्रा भंग हुई। पंडितानी-‘‘ कोई चिंता मत करो भाई साहब, आपके पैसा सोने के हैं, देर लग रही  है तो  हर महीने  ब्याज चढ़ रही है। मेरी गारंटी है’’।
 - ‘‘तब तक हर महीने ब्याज ही दिलवा दो’’। यह कर साहूकार तो चला गया। लेकिन उसकी बात पंडितानी के दिल में शूल की तरह लगी। सुबह से वह भूखी- प्यासी थी जो एक ही झटके से काफूर हो गयी।   वह सीधे निनुआ के घर गई। रास्ते भर बड़बड़ाती रही, लोग काम निकालने के लिए तो देहरी की धूरि ले लेते हैं लेकिन काम निकलने पर सुधि भी नहीं लेते। कैसे-कैसे लोग हैं?  वह गुस्से में खूब लाल-पीली हो रही  थी, खूब सुनाएगी बुड्ढे को लेकिन जैसे ही घर के भीतर घुसी , निनुआ को चारपाई पर बीमारी की हालत में देखा, उसकी गुस्सा गुब्बारे के फूटने जैसी फुस्स हो गई। निनुआ ने अंदर से कुर्सी मंगाई, बैठाया, हाथ जोड़े-‘‘ आपके कारण हमारी इज्जत रह गई। हम आपका यह अहसान जिंदगी भर नहीं भूल सकते। मैं तो शादी के बाद से ही बीमार पड़ा हूं, जैसे ही ठीक हो जाऊंगा. आपका पाई-पाई चुकाऊंगा। ब्याज भी दूंगा। तब तक की थोड़ी मोहलत दे दें’’। एक ही सांस में उसने बोल दिया।
उसने अपने दोनों बच्चों और बहुओं को बुलाया-‘‘देखो ये पंडितानी हैं , इन्होंने ही अपनी जुबान पर गुड़िया की शादी के लिए सवा लाख रुपये दिलवाए थे’’। दोनों बेटों  ने कहा-‘‘ गुड़िया हमारी बहन है, हमारी जिम्मेदारी है। थोड़ी सी मोहलत दे दें, हम एक-एक पैसा चुका देंगे’’। पंडितानी इस पर अब क्या कह सकती थी, जैसी गई थी, वैसी ही अपना सा मुंह लेकर लौट आई। घर में रुपये रखे थे बेटी  की फीस  के लिए। वे साहूकार को देकर तीन माह की ब्याज चुकता कर दी। सिर से एक बोझ उतर गया।  फीस के लिए अभी समय है, भगवान ने चाही तो  तब तक शायद बाबा से पैसे वापस  आ जाएं। यह सोच  कर उसने अपना मन समझा लिया।
एक महीना बाद पंडितानी बाबा को देखने के बहाने फिर उसके घर गई। बाबा ने इस बार आस पड़ोस वालों को भी  इकट्ठा कर लिया। उनके सामने बच्चों से फिर दोहराया -‘‘ पंडितानी ने हमें गुड़िया की शादी के लिए सवा लाख रुपये दिलाए थे, मैं ये पैसे ठीक होते ही चुका दूंंगा’’। निनुआ बेईमान नहीं था। उसका एक-एक पैसा चुकाने का इरादा था। ऐसा उसने इसलिए किया ताकि खुदानखास्ता वह मर जाए तो उसके बच्चे पंडितानी के साथ  बेईमानी नहीं  कर सकें। उस हालत में मोहल्लेवाले पंडितानी के लिए गवाह तो होंगे। पंडितानी इस बार भी निरुत्तर हो कर लौट आई। उसे निनुआ की ईमानदारी पर अब भी कोई शक नही था।
कुछ दिन बाद निनुआ की तबियत ज्यादा खराब हुई। अजीब-अजीब तरह के सपने दिखाए देने लगे। आसमान से सफेद कपड़े पहने कुछ लोग उसे बुलाने आ रहे हैं, कुछ उससे जबरदस्ती करते हैं चलो हमारे साथ आदि-आदि। उसने पंडितानी को बुलवा लिया। उसे आभास था कि अब शायद वह नहीं बचेगा। इसलिए उसने बहू और बच्चों को गंगाजली उठवाकर कसम दिलाई -‘‘वे पंडितानी का पैसा ब्याज समेत चुकाएंगे’’। इसके एकाध दिन बाद ही निनुआ इस दुनिया से विदा हो गया।
शोक जताने के लिए पंडितानी भी गई, घर के लोग दहाड़ मार कर रो रहे थे। एक के बाद एक नाते-रिश्तदार आ जा रहे थे। पंडितानी का दिल और दिमाग रो रहा था, अब क्या होगा? वह कहां फंस गई। मेरे पर तो इतने पैसे भी नहीं हैं कि चुकता कर पाऊं। घर के लोग रो जरूर रहे थे लेकिन यह उनकी औपचारिकता भर थी, वे कुछ देर आंसूं पोंछते, फिर घर के अंदर जाकर जरूरी काम कर आते,  आगे की योजना बनाते, घर का बंटवारा कैसे करेंगे। यह हिस्सा मैं ले लूंगा, बाकी उसे दे दूंगा। वे मन ही मन निश्चिंत भी थे, अब पिताजी का कमरा खाली हो जाएगा, दवा- दारू का खर्च बंद हो जाएगा। आए दिन की बात-बात पर टोका-टाकी  नहीं होगी। कम से कम सुकून तो रहेगा। लेकिन पंडितानी  के दुख का पारावार नहीं था। उसका  दम सा निकल गया। पसीना से पूरा शरीर तर-वतर हो गया, दिमाग में चक्कर आने लगे, लगा कि वह गिर पड़ेगी, वह जमीन पर बैठ गई।  थोड़ी देर बाद जब कुछ होश आया, वह घर वापस आ कर दीवार के सहारे सिर पकड़ कर घंटों बैठी रही। सोचती रही, अब तो  बेटी की पढ़ाई भी नहीं हो पाएगी। इसकी शादी के लिए पैसा कहां से आएंगे।  जो पैसे किसी तरह इकट्ठे होते हैं वह ब्याज में देने पड़ते हैं। उसके सवा लाख कहां से आएंगे? इतने तो वह कैसे भी नहीं चुका पाएगी। क्या सचमुच उसका मकान बिक जाएगा। फिर मोहल्ले में बदनामी होगी सो अलग। वह किसी को क्या मुंह दिखाएगी। उसने तो कोई लिखा-पढ़ी तक नहीं कर पाई। बच्चे मुकर गए तो, दिमाग में तूफान सा चल रहा था। सोचती, लिखा-पढ़ी से भी क्या होना, उसके लिए अदालतों के चक्कर काटते-काटते चप्पल घिस जाएंगी, उसके लिए भी पैसे चाहिए। मुफ्त मे थोड़े ही चलता है मुकदमा। तरह-तरह के ख्याल आने लगे। पंडितजी और बेटी समझाने लगे-‘‘ चिंता मत कर, सब हो जाएगा, परमात्मा इसके लिए भी इंतजाम करेगा, जाही विधि राखे राम ताही विधि रहिए’’।  दुख कितना ही कठिन हो लेकिन वह स्थायी रूप से नहीं रह पाते, इंसान का दिल और दिमाग खुद ही संतुलन बना लेते हैं। उसने भी धीरज धर लिया।  फिर भी चिंता तो  थी ही, चिंता चिता से भी  बढ़कर होती है।
दिन बीते-सप्ताह बीते, महीना बीते। निनुआ के बच्चों से एक पैसा नहीं मिला। पंडितानी जाती तो एक ही जबाव सुनकर चली आती-‘‘ हम मना थोड़े ही कर रहे हैं, जैसे ही हो जाएंगे, चुकता कर देंगे। आप परेशान न हो’’। कई बार एक-दूसरे पर डाल देते,-‘‘ यह देगा पैसे, पापा ने इसी को ज्यादा माल दिया है’’। । आपस में लड़ने लग जाते,  एक-दूसरे को गाली-गलौज करना शुरू कर देते, बच्चों को मारते-पीटते, ऐसे में पंडितानी का एक मिनट के लिए  भी वहां टिकना मुश्किल हो जाता।  एकाध बार यह भी कह दिया-‘‘बार-बार चक्कर लगाने से भी कुछ नहीं होगा। पैसे तो जब आएंगे तभी देंगे’’। पंडितानी ने भाग्य पर भरोसा कर उनके यहां जाना ही बंद कर दिया।  बेटी का दाखिला नहीं हो सका।  घर का खर्च चलाने के लिए उसे प्राइमरी स्कूल में ढाई हजार रुपये महीने पर नौकरी पर लगा दिया, घर के खर्चे भी कम कर लिए। चाय अब दिन में तीन बार की जगह एक बार ही बनने लगी।  सब्जी में कटौती कर दी।  बच्चे बाहर की चीजों के लिए मचलते तो उन्हें भी समझा-बुझाकर शांत कर दिया जाता। लेकिन  साहूकार  को  पांच हजार रुपये महीने की नियमित रूप से ब्याज चुकाना बंद नहीं किया। साहूकार कब तक ब्याज पर संतोष कर सकता था।  उसे निनुआ के मरने से क्या मतलब वह तो केवल  पंडितानी को जानता था।
बहुत दिन सोचते- विचारते एक दिन उसने अपना मकान ही औने-पौने में बेच दिया। आवास विकास परिषद और साहूकार का पाई-पाई चुकता कर वह चुपके से इस शहर से ही विदा हो गई। 
कई महीने बाद एक दिन मथुरा में मिल गई। देखते ही मुस्कराई‘‘ भाई साहब घर चलो’’।  मुझे जल्दी  थी, फिर भी मैंने कुछ  कुरेदा, ‘‘ बाबा का पिछले जन्म का हम पर उधार होगा तो हमने चुका दिया। यदि वह हमारा ले गया है तो उसे अगले जन्म में चुकाना होगा।  ईश्वर के यहां देर है अंधेर नहीं’’-यह कह कर वह  फिर  मुस्कराई।



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