अरुणा की अरुणिमा

                
      डा. सुरेंद्र सिंह
कभी-कभी कोई छोटी सी जिंदगी और उसकी एक घटना भी एक मिसाल बन जाती है। जो वर्तमान ही नहीं अगली पीढ़ियों के लिए भी अंधेरे  में झिलमिलाती रोशनी का काम करती है। अरुणा न केवल जीकर बल्कि कर भी ऐसी ही एक मिसाल बन गई है।
अरुणा ने अपने जीवन में कोई ऐसा काम नहीं किया, जिसके लिए उसे लोग उसे याद करें, यह भी कह सकते हैं कि उसे इसके लिए अवसर ही कहां मिला? २२ वर्ष की उम्र में जबकि वह जूनियर नर्स थी, दरिंदे ने बहशी हरकत कर उसकी जिंदगी तबाह कर दी। इसके कारण वह ४२ वर्षों तक जिंदा लाश बन कर रही।  कर्नाटक के हल्दीपुर की रहने वाली अरुणा शानबाग की तकलीफदेह  जिंदगी मानवता के लिए मील का पत्थर है। इस दौरान आर्थिक आदि परिस्थितियों के चलते जहां उसके परिवारीजन तक उससे मिलने के लिए भी नहीं आए। वहीं उनकी सहयोगियों ने जिस प्रकार उसकी सेवा की, वह अतुलनीय है। वे न केवल अरुणा के लिए इच्छा मृत्यु मांगने वाली उसकी पत्रकार मित्र पिंकी विरानी के खिलाफ लड़े बल्कि उसका शव परिवारीजनों तक देने के लिए खिलाफ हो गए। यह इंसानियत समाज के लिए प्रेरणास्पद है। इससे प्रमाणित होता है कि समाज में अभी  बहुत कुछ है। जिन्होंने उसकी निस्वार्थ भाव से सेवा श्रुयूसा की वे सम्मान के हकदार हैं। कोई कितनी ही विपदा में हो, उसे निराश नहीं होना चाहिए, अपने लोग भले ही उसका साथ छोड़ दें लेकिन उसे सहयोग करने मिल ही जाएंगे। ये दुनिया ऐसे ही लोगों से संतुलित है।  
अरुणा सबसे बड़ी उपलब्धि इस मामले में है, उसके कारण जिंदगी के मायने ही बदल गए। सदियों से अपने देश में स्वेच्छा से शरीर त्याग की परंपरा रही है। चाहे भगवान राम हों, महाभारत के पांडव, जैन समाज के तमाम मुनि स्वेच्छा से अपना जीवन त्यागते रहे हैं।  लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने अरुणा के केस में सात मार्च २०११ के अपने ऐतिहासिक आदेश में इस मान्यता को ही बदल दिया। सुप्रीम कोर्ट के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश मार्कंडेय काटजू ने अपने आदेश में स्पष्ट रूप से कहा कि जिंदगी लेने का अधिकार किसी को नहीं है। अरुणा की जिंदगी कष्टमय होने के बावजूद उसे इच्छा मृत्यु नहीं मिली।
यह ठीक है कि जीते जी अरुणा को न्याय नहीं मिला। उसका दोषी सात साल की सजा भुगतकर आजाद हो गया, यह सजा भी उसे मारपीट और लूटपाट के केस में हुई, बलात्कार के मामले में उसे कोई सजा नहीं मिल पाई। यह मामला न्याय प्रणाली की खामियों को उजागर करता है। लेकिन अरुणा की जिंदगी ने बलात्कारियों के खिलाफ समाज और कानूनविदों को उद्वेलित किया जिसके कारण बलात्कार के खिलाफ सख्त कानून बन सका। यह ठीक है कि कड़े कानून का मुख्य श्रेय दिल्ली में १६ दिसंबर २०१२ को बलात्कार की शिकार छात्रा को जाता है लेकिन इसमें अरुणा के योगदान से भी इंकार नहीं किया जा सकता।
अरुणा की शापित जिंदगी लोगों के लिए भुलाए नहीं भूली जा सकेगी।  जब-जब महिलाओं के साथ बहशीपन की हरकतें होंगी, अरुणा लोगों के जेहन में आकर खड़ी हो जाएगी, वह इंसाफ मांगेगी, मुझे न मिला लेकिन इसे तो दो। मरने के बाद अरुणा को शांति मिली या नहीं मिली, इसके बारे में कुछ नहीं कहा जा सकता लेकिन जब तक बलात्कार की घटनाएं होती रहेंगी, तब तक अरुणा की घटना लोगों को चेन से नहीं बैठने देगी। उन्हें इसके खिलाफ विवश करती रहेगी। असभ्यता से सभ्यता की ओर बढ़ रहे समाज के लिए यह अनुत्तरित प्रश्न है कि आखिर वह दिन कब आएगा जबकि कोई अरुणा नहीं बनेगी।

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