सिर्फ दो मिनट

          
       डा. सुरेंद्र सिंह
जिंदगी न जाने कितने मिनटों, घंटों, दिनों से बनी है, इससे किसी को कोई लेना-देना नहीं है। कोई इस पर ध्यान ही नहीं देता जितना दो मिनट पर। दो मिनट अमूल्य हैं। पूरी जिंदगी में दो मिनटों का ऐसे ही महत्व है जैसे आगरा का पेठा, मथुरा के पेड़े, अलीगढ़ के ताले, हाथरस की बालूशाही, इगलास की चमचम। दावत में तमाम व्यंजन खाने के बाद रसगुल्ला। ये तो चाहिए ही। जिन्हें डायबिटीज है, वे भी नहीं भूलते, अरे आज ही की तो बात है,  दो रसगुल्लों में क्या जाता है?
दो मिनट तरह-तरह के होते हैं। यह आदमी-आदमी पर डिपेंड करता है। किसी का दो मिनट बीस मिनट का होता है तो किसी का घंटों का। ऐसे बिरले ही होते हैं जिनके दो मिनट वास्तव में दो मिनट होते हैं। ऐसे लोग सम्मान के हकदार हैं।  आप किसी का इंतजार कर रहे हैं, घंटों हो गए, आपने फोन कर उलाहना दिया तो उधर से यही जवाब आता है-‘‘बस दो मिनट’’। इसके स्थान पर वह चाहे पूरा एक घंटा लगा दे। फिर उससे पूछेंगे तो वही जवाब मिलेगा- ‘‘दो मिनट और’’। इसके  बाद भी टाइम में दो मिनट के रूप में बढ़ने की गुंजाइश रहती है-‘‘अब सिर्फ दो मिनट’’। मेरा का एक छोटा भाई है। बहुत आज्ञाकारी है। मैं यदि उससे आने को कहता हूं तो दो मिनट बोलता है। दो घंटे बाद फिर फोन करूंगा तो उसकी बेटी बताएगी- ‘‘पापा अभी तो नहा रहे हैं’’। नहाने के बाद उसका फोन आएगा-‘‘भैया बस दो मिनट’’। आप अनुमान नहीं लगा सकते कि उसके दो मिनट के मायने क्या हैं?
किसी की जिंदगी में बहार आए न आए, मनचाही नौकरी लगे न लगे , मनचाही शादी हो न हो, लेकिन दो मिनट जरूर आते हैं,  यह ऐसे ही सत्य है जैसे शंकराचार्य का ‘ब्रह्म सत्यं जगत मिथ्या’। सड़क से लेकर संसद तक दो मिनट ही दो मिनट हैं। माननीय स्पीकर महोदय चिल्ला रहे हैं-‘‘ आपके बोलने का समय खत्म हो चुका है’’, झट से सांसद जी कहेंगे-‘‘सिर्फ दो मिनट और समय दीजिए’’। वह दो मिनट की ऐसी व्याख्या करते हैं ‘‘ देश के लिए यह बहुत ही महत्व का मामला है, यदि इस पर तत्काल प्रकाश नहीं डाला गया तो अंधेर हो जाएगा...’’।  इस व्याख्या में ही दो मिनट गंवा देते हैं, इसके बाद उन्हें अपनी बात कहने के लिए दो मिनट रूपी अनेक दो मिनट और चाहिए।
जन सभा में लोग बोर हो रहे हैं, हल्ला कर रहे हैं, -‘‘अब बस करो नेताजी’’ लेकिन वक्ता कहेगा- ‘‘बस दो मिनट और’’। कुछ चतुर सुजान वक्ता लोगों को बोर होने से बचाने के लिए पहले ही कह देते हैं- ‘‘आपके बीच ज्यादा समय नहीं लूंगा हमारे माननीय वक्तागण इस विषय पर बहुत बोल चुके हैं। मुझे तो सिर्फ दो मिनट चाहिए’’।  इसके बाद वे ऐसा बोलेंगे कि सुनने वाले कहते ही रह जाएंगे-‘‘ इसके दो मिनट कब होंगे भाई?’’ एकाध ऐसे भी होते हैं जिनके पास कुछ कहने को ही नहीं होता, वे दो मिनट की कहते हैं और उससे पहले ही अपनी बात खत्म कर देते हैं। यह दो मिनट का ही कमाल है ज्यादा समय तक गला फाड़ने वाले वक्ता हूटिंग झेलते हैं और दो मिनट वाले तालियां बटोर ले जाते हैं।
आप सालों से दफ्तर के चक्कर लगा रहे हैं, बाबूजी टहला रहे हैं लेकिन कभी-कभी किसी ऊपरवाले की कृपा से ऐसा संयोग बनता है, अधिकारी डांट लगाता है-‘‘क्यों देरी हो रही है?’’ बाबूजी- ‘‘बस दो मिनट’’ और काम हो जाता है। यह संयोग बरसात में स्वाति नक्षत्र की तरह है, जिसमें मोती बनता है। काश ऐसा नक्षत्र सब की जिंदगी में बार-बार दो-दो मिनट आता रहे। रेलगाड़ियां ज्यादातर स्टापेज पर दो मिनट ही रुकती हैं।
किसी की जिंदगी में ऐसे दो मिनटों से पाला पड़ा हो या  न हीं लेकिन उठावनी के दो मिनट तो झेले ही होंगे। किसी प्रियजन के शोक में एक घंटे तो आपस में बतियाते, इशारों से हाल चाल पूछने, नैन मटक्का और मोबाइल देखने में कट गए। एकाध विद्वान ऐसे में भाषण पेल देते हैं, वे भी टाइम काटने की चीज है। लेकिन बाद के दो मिनट शोक व्यक्त करने के लिए और चाहिए। -‘‘हे भगवान, इतने समय से क्या कर रहे थे?-‘‘ ये दो मिनट आत्मा की शांति के लिए चाहिए’’। मरने वाले की आत्मा को कितनी शांति मिलती होगी? मिलती होगी भी या नहीं? इसका कोई प्रमाण नहीं है, लेकिन जो लोग इस प्रक्रिया से गुजरते हैं उन्हें दिन में चांद-तारे दिख जाते हैं। लोग घड़ी की सुई पर नजर रखते हुए भगवान से प्रार्थना करते हैं कि यह कितनी देर में एक चक्कर लगाएगी और दूसरा चक्कर कितने देर में पूरा होगा? इस दो मिनट के बाद जो शांति मिलती है, वह अपने में उल्लेखनीय है।
अब सवाल उठता है कि ये दो मिनट कहां से आए? अपने यहां तो बहुत पहले समय का अनुमान सूर्य और चंद्रमा की स्थिति से लगाया जाता था। पढ़े-लिखे प्रहर का इस्तेमाल करते। नि:संदेह यह दूसरी बहुत सी चीजों की तरह विदेशी है लेकिन ये है बिल्कुल अपनी सी। इसके बिना किसी का गुजारा नहीं है। मेरे भी अब दो मिनट रूपी अनेक मिनट हो चुके।

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