सौ सरस्वती नदियां

              
        डा. सुरेंद्र सिंह
अस्तित्व मिटने के करीब दस हजार साल बाद अब सरस्वती नदी की खोजबीन की जा रही है। सरस्वती शोध संस्थान से लेकर, सरस्वती हेरिटेज विकास बोर्ड आदि इसके लिए काम कर रहे हैं। हरियाणा सरकार ने सौ करोड़ मंजूर कर दिए हैं, इसमें पचास करोड़ जारी भी हो गए हैं।  रवि प्रकाश शर्मा की नई किताब ‘न्यू डिस्कवरी रिसर्च एबाउट वैदिक सरस्वती’ में दावा किया गया है कि इसके अवशेष मिल गए हैं राजस्थान के जेसलमेर जिले के कालीबंगान और मोहानगढ़ के निकट धरती के १२ फुट नीचे, चालीस फुट चौड़ी जलधारा के रूप में। इसमें मिले पानी की क्वालिटी को सरस्वती नदी के मूल पानी की संज्ञा दी गई है। इस खोजबीन ने लोगों सरस्वती नदी की मृगतृष्णा जगा दी है खासतौर से उन लोगों में जो हर पुरानी चीज को ज्यादा अच्छी और प्िवत्र मानते हैं।
यह नदी कितनी पुरानी थी, इसका अंदाज इस बात से लगाया जा सकता है कि ऋग्वेद में इसका वर्णन है। इसमें इसे अन्नवती, उद्गवती के नाम से भी जाना गया है।  यह नदी सदा जल से भरी रहती थी। तब यह पंजाब के सिरमूर राज्य के पर्वतीय क्षेत्र से निकलकर  अंबाला और कुरुक्षेत्र से होती हुई करनाल जिला और पटियाला राज्य में  प्रविष्ट होकर सिरसा जिले होकर बहती थी। यह यमुना के पूरब और सतलुज के पश्चिम में बहती थी। इन दोनों नदियों की कुछ धाराएं सरस्वती में मिलती थीं। सरस्वती अरब सागर में जाकर मिलती थी। कुछ लोग यह भी कहते हैं कि यह प्रयाग में यमुना और गंगा में मिलकर त्रिवेणी बनाती थी। कुछ लोग अब भी इसके नाम पर दुकान चलाते हैं,  श्रद्धालुओं को गंगा के बीच में ले जाकर उसमें दिखाते हैं कि ये देखो नीचे सरस्वती अदृश्य रूप से बह रही है लेकिन वास्तव में सरस्वती न श्रद्धालुओं को दिखती है और नहीं पंडे- पुजारियों को। सरस्वती का प्रयाग में मिलने का कोई प्रमाण नहीं है।
माना जाता है कि वतर्मान यमुना नगर से ऊपर शिवालिक पहाड़ियों से आदिबद्री नामक स्थल इसका उद्गम था। अब वहां इसकी पतली धार ही शेष है। भू वैज्ञानिकों के अनुसार राजस्थान और हरियाणा में होकर बहने वाली सरस्वती नदी की प्रमुख सहायक नदियों में घग्घर और हकरा थीं जो अब सूखी हुई हैं। भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण परिषद के अनुसार सरस्वती नदी उत्तराखंड के रूपण नामक ग्लेशियर से निकलकर आदिबद्री होकर अगे जाते थी। हजारों साल पहले आए बड़े भूकंपों ने इसे खत्म कर दिया। भूकंपों के कारण पहाड़ ऊपर आ गए और सरस्वती नीचे धरती में समा गई। सरस्वती ऐसी अकेली नदी नहीं है, तमाम नदियां हैं जिनका प्राचीन ग्रंथों में तो उल्लेख है लेकिन मौजूदा समय मेंं उनका कोई अवशेष नहीं है।
उत्तरवैदिक साहित्य तांडय और जैमिनीय ब्राह्मण के अनुसार मरुस्थल में सरस्वती को सूखा बताया गया है। महाभारत में बहुत स्पष्ट रूप से उल्लेख है कि सरस्वती नदी मरुस्थल में विनाशक स्थान पर विलुप्त हो गई। जाहिर है यह महाभारत काल में भी नहीं थी। महाभारत काल को ईसा से हजारों साल पहले माना जाता है। तब की नदी को खोज निकालना वास्तव में दूर की कौड़ी है। प्राचीन ग्रंथों में इसका उल्लेख होने के कारण यह निश्चित रूप से भारतीय जनमानस के ह्रदय स्थल से जुड़ी है, खासतौर से उन लोगों के लिए जो हर पुरानी चीज को महान और पवित्र मानते हैं। कहा यह भी जाता है कि हड़प्पा सभ्यता इसी के किनारे बसी थी। सिंधु और सरस्वती दो प्रमुख नदी उत्तर भारत की सभ्यता की प्राचीनता के प्रमाण हैं। खुदाई में सरस्वती नदी के किनारे अनेक प्राचीन शहरों के अवशेष मिले हैं। इस तरह सरस्वती नदी के और अवशेष खोज जाएं तो संभव है कि कुछ सफलता मिल जाए लेकिन सरस्वती नदी पहले की तरह फिर से जिंदा हो जाए यह असंभव है। यह तो तभी संभव हो सकेगा जबकि फिर से भयंकर भूकंप आएं धरती के नीचे का हिस्सा ऊपर आ जाए और ऊपर का नीचे आ जाए। सो इस तरह के न तो भूकंपों की कल्पना की जा सकती है और नहीं सरस्वती के नदी के पानी की। धरती सदा परिवर्तनशील है। इसमें प्रतिक्षण परिवर्तन होता रहता है, कभी छोटा परिवर्तन तो कभी बड़ा। 
इस वक्त सरस्वती नदी से भी ज्यादा जरूरत को पानी की है चाहे वह किसी नदी का हो।  नाम में क्या रखा है, पानी चाहिए और अच्छा चाहिए। तभी लोगों की प्यास बुझेगी और तभी खेतों की उपजाऊ शक्ति बढ़ेगी। उद्योग-धंधे भी तभी पनपेंगे।
कितने ताज्जुब की बात है कि लोग हजारों साल पहले मर चुकी नदी के लिए तो विलाप कर रहे हैं, उसके पानी की चार बूंदे मिलने का दावा कर सफलता की छाती पीट रहे हैं। लेकिन हर साल बरसात में व्यर्थ बह जाने वाले उससे भी पवित्र जल को सहेज नहीं पा रहे हैं और नहीं उसके लिए कोई कोशिश कर रहे हैं। यह तो वही बात हुई-घर में छोरा, बगल में ढिंढ़ोरा। यदि बरसात के जल के लिए सही प्रबंध कर लिया जाए तो एक-दो नहीं पूरी सौ सरस्वती नदी पैदा की जा सकती हैं।


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