छोरियां हैं, जरा बच के

    डा. सुरेंद्र सिंह
एक वो छोरियां हैं जो रुपहले पर्दों पर दिखती हैं, हर दम यारों के इर्द-गिर्द चक्कर चकई की तरह घूमती हैं, क्षण में मुरझा जाती हैं तो क्षण में खिलखिला उठती हैं। एक वे छोरियां हैं जो महानगरों में दिन पर दिन बदलती फैशन को भी मात देती रहती हैं। वे फैशन से नहीं फैशन इनसे चलती हैं। फिल्मों वाले शायद इन्हीं की नकल कर-करके अपना काम चलाते हैं। इन्हीं लिए उनके इर्द-गिर्द मधुमक्खे मड़राते रहते हैं, ‘आ बैल मुझे मार’, कहावत शायद इन्हीं के लिए बनी है।  नाजुक इतनी कि जरा सी धूप इनके चेहरे को जला डाले, बचने को मुंह ढंककर चलती हैं।  जमीन पर जरा पैर टेड़े-मेड़े पड़ जाएं तो मोच आ जाए। इसलिए जमीन पर उचक-उचक और गिन-गिन कर पैर रखती हैं।
एक ये गांव की छोरियां हैं, जिनके कारण हैंडपंप हैंचू-हैंचू करते हैं। यदि शहरी छोरे चलाएं तो दो हत्थे मारने में सांस फूल जाए लेकिन इनके सामने आज्ञाकारी बालक की तरह चलते हैं। ये दिन भर में कितना पानी जमीन से खींच लेती हैं, इसका कोई हिसाब किताब इनके पास भी नहीं होगा। अब घर से हैंडपंप तक दो चक्कर पीने के पानी के हो गए। अब तीन चक्कर परिवार के लोगों के नहाने के हो गए। अब तीन चक्कर कपड़े और बर्तन धोने के लिए हो गए। पालतू जानवरों के लिए इससे भी ज्यादा पानी चाहिए। चक्कर भी ऐसे वैसे नहीं, पानी से भरे दो-तीन बर्तन सिर पर, एकाध हाथों में।  दिन के २४ घंटों में से एक चौथाई समय इनका पानी के लिए आरक्षित है, जितना समय सुबह उतना ही सायं को। इसके अलावा रोटी करना, चौका वासन करना, झाड़ू लगाना, कपड़े धोना, कोई रिश्तेदार आ जाए तो उसकी सेवा करना। दिन भर इनके हिस्से काम ही काम है। सुबह की शुरुआत गोबर की चालीस किलो वजनी सिर पर लदी हेल से होती है, जिसे आधी या एक फर्लांग दूर खाद के गड्ढे में पहुंंचाने से होती है। साथ में पानी के दो-तीन बर्तन भी। इधर से खाली, उधर से भरे। दिन भर में ये शरीर से जितना काम करती हैं, उतना कोई पहलवान अखाड़े में सात जनम में भी नहीं कर सकता। यदि ये शहरी छोरे को लप्पड़ (थप्पड़) मार दें तो काफी दूर जाकर गिरे। फिर इन्हें पढ़ना भी है। लड़कों से ज्यादा नंबर भी लाने हैं।  इस पर भी दिन पर खिलखिलाती हैं। शहरी छोरो, जरा इनसे बचकर रहना। चक्कर में पड़ गए तो पछताना पड़ेगा। 
जिन-जिन घरों मेंं ये छोरियां हैं, उनकी मां मौज करती हैं। अरे सब हो जाएगा, छोरी है तो सही। चल भैना जरा बतिया लें। बहुत दिनन में आई हो। कुछ चुगलखोरी हो जाए। जिन पर लड़के ही लड़के हैं, वे भगवान से शिकायत करती हंै, एक लड़की दे देता तो क्या बिगड़ जाता, कम से कम घर का काम तो संभाल लेती। कुछ मांएं तो लड़कों पर यह कर गुस्सा उतारती हैं हैं  इसके बदले लड़की होती तो ठीक रहती।
शहरों की छोरियो जरा इन अपनी बहनों से सीखो। डरो मत, झिझको मत, आपमें भी  वही खून है, मेहनत तो करो। कानून आपकी रक्षा नहीं कर पा रहा है तो न सही, केवल कानून से काम भी न चलेगा। अपने को मजबूत बनाइए। गुंडे डर कर भाग जाएंगे।

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