बेड़ा गरक-२

डा. सुरेंद्र सिंह
अब ये शिक्षा के भावी कर्णधार हैं? देश का उज्ज्वल भविष्य हैं? परिवार वालों को इनसे बहुत उम्मीद हैं। इसलिए नहीं कि यह पढ़ाई में एक्ट्रा आर्डिनरी हैं, नंबर तो ऐसे ही घिसे-पिटे लाते हैं किसी तरह ले-देकर पास हो जाते हैं। एप्लीेकेशन लिखते हैं तो उसमें दस गलती करते हैं, कालेज का नाम तक सही नहींं लिख सकते। इनकी विशेषता है कि ये अपनी पढ़ाई का खर्च खुद निकाल लेते हैं, किसी पर बोझ नहीं बनते। बीएससी द्वितीय वर्ष में पढ़ रहे हैं। पढ़ाई में कम दूसरे कामों में ज्यादा व्यस्त रहते हैं। इनका मानना है कि पढ़ाई में क्यों टाइम खराब करें? पास तो हो ही जाएंगे। नौकरी नंबरों से नहीं जुगाड़ और पैसे से मिलती है। सो हर वक्त जुगाड़ में लगे रहते हैं। कालेज भी इनसे खुश है, क्योंकि यह उसकी भी मदद करते रहते हैं। कौन छात्र क्या हरकत करता है, किसने किससे क्या कहा आदि-आदि। कालेज का अधिकांश स्टाफ इन्हें नाम से जानता है।
अभी प्रिंसिपल के पास आए हैं, गेट के पास खड़े होकर मुलाकात के लिए अपनी बारी का इंतजार कर रहे हैं। कई मिनट हो गए, प्रिसिपल के सामने बैठे सज्जन अभी तक कुर्सी से चिपके हुए हैं। प्रिंसिपल सवाल की मुद्रा में घूरते हैं, -‘‘क्यों आए हो?’’ ये इशारे से अलग से बात करने का संकेत करते हैं। सज्जन के चले जाने पर प्रिंसिपल के पास आकर धीरे से सरकाते हैं, -‘‘सर, मैंं कुछ दाखिले करा दूं तो मुझे क्या मिलेगा?’’ प्रिसिपल आश्चर्यचकित। अब छात्र भी कमीशन मांगेंगे? इससे पहले कि उन्हें डांट कर भगाया जाए, वह कहते हैं- ‘‘सर, मैं झूठ नहीं बोल रहा, मेरे पास सचमुच में एक दर्जन से ज्यादा छात्र हैं, सब की पूरी फीस मिलेगी, वह भी एक मुश्त में लेकिन मुझे कुछ मिले तो मेहनत करूं। दूसरे कालेज वाले तैयार हैं लेकिन मैं चाहता हूं अपने कालेज के लिए काम करूं।’’
प्रिंसिपल साहब को राहत मिलती है, ऐसा लगता है मानो अंधे को बटेर मिल गई है। कल ही तो मैनेजर साहब ने डांटा था-‘‘बैठे-बैठे कुर्सी तोड़ते रहते हो, एडमीशन वैडमीशन भी कराओ, जब छात्र ही नहीं होंगे तो तुम्हारा क्या करेंगे?’’ तब से रातों की नीद और दिन का चेन गायब है, ब्लड प्रैशर बढ़ा जा रहा था, अब आकर कलेजे को ठंडक मिली है।
वह छात्र को आश्वस्त करते हैं- ‘‘चिंता मत करो। तुम्हें भी ईनाम मिलेगा। मन लगाकर पढ़ो। जाओ, हां कब बच्चे लेकर आ रहे हो?’’ -‘‘सर ईनाम से काम नहीं चलेगा। पहले स्पष्ट बता दीजिए प्रति छात्र कितना मिलेगा? जितना औरों को मिलता है, उतना मुझे भी दे दीजिए।’’ -‘‘अच्छा चलो, जल्दी लाना।’’ -‘‘थोड़ा समय दीजिए, उनके पास जाना पड़ेगा उन्हें समझाना पड़ेगा, तब काम बनेगा। कोई पहले से तैयार थोड़े ही हैं।’’ -‘‘चलो ठीक है।’’ छात्र भी प्रसन्न और प्रिसिपल भी प्रसन्न।
कालेज से छूटकर सबसे पहले चाचा के लड़के के पास जाता हैं, -‘‘अब तो डिग्री कालेज में पढ़ेगा। इंटर-विंटर को कौन पूछता है, डिग्री कालेज की पढ़ाई की बात ही और है। हमारे साथ रहना बॉसगीरी करना। मजे से रहना। किसी की फिक्र नहीं। मेरे साथ चलना. प्रिंसिपल से सीधे दाखिला कराऊंगा। एक साल पढ़ते-पढ़ते अपनी भी जुगाड़ बन गई है, प्रिसिंपल से।’’  इसके बाद मौसी के लड़के पास। -‘‘गांव के सब लड़के तो हमारे कालेज में पढ़ते हैं, तू भी चल हमारे साथ मौज करेगा। पास होने की चिंता मत करना। तेरी मरजी, मन लगे तो पढ़ने जाना, न लगे तो घर पर काम करना। पास कराने की मेरी गारंटी। चल कर देख तो सही, अपना भी इस कालेज में रुतबा है। तू भी क्या याद करेगा, कहांं दाखिला कराया।’’ 



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