बेड़ा गरक-४

डा. सुरेंद्र सिंह
एडमीशन के लिए मारा-मारी मची है समरभूमि की तरह। चारों ओर हाथपैर मारे जा रहे हैं। कहीं से भी लाओ, एडमीशन कराओ। अनेक लोग जुटा रखे हैं, क्या टीचर, क्या बाबू, घर के नौकरों तक को जिम्मेदारी दे रखी है। दलाल भी लगे हैं। इस मौके पर मैनेजर भी खाली हाथ क्यों रहें? वह भी लगे हैं,  अपने मित्रों और जान पहचान वालों से। एक स्वजातीय बंधु इंटर कालेज के प्रिंसिपल से सहायता की गुहार करते हैं -‘‘भाई मदद करो, साला डिग्री कालेज क्या ले लिया? बुरे फंस गए हैं, आफत मोल ले ली है। पैसे के पैसे गए, अब दाखिले ही नहीं हो रहे। इसमें तो ब्याज भी नहीं निकलेगी।  ज्यादातर सीटें खाली पड़ी हैं। -‘‘आप चिंता न करें, दस-बीस जितने भी होंगे, मैं देख लूंगा। आप फार्म भिजवा दें। भरकर फीस समेत भिजवा दूंगा। एक विनती है, बच्चे पढ़ने कालेज में नहीं आएंगे। केवल इम्तिहान देंगे, वे लोग अपना काम करते हैं’’। -‘‘वह कोई बात नहीं। हाजिरी भरवा देंगे’’। -लेकिन हमारा ख्याल रखना’’। -‘‘इसकी आप चिंता बिल्कुल न करें। आपका हिस्सा आपको घर बैठे मिल जाएगा’’।
कई दिन बाद मैनेजर एक प्रवक्ता को भेजकर भरे हुए फार्म मंगवाते हैं। किसी के साथ आधे अधूरे प्रमाण पत्र हैं तो किसी के साथ मार्कशीट को छोड़ अन्य कोई प्रमाण पत्र ही नहीं। एकाध में फोटो भी नहीं लगे। प्रिंसिपल कहते हैं, -इसकी फिक्र न करें, सारे कागज बाद में भिजवा देंगे। फीस के मामले में मैनेजर साहब से बात करने की कहते हैं। बाकी फार्म भी जल्द दे देंगे। कई दिन बाद मैनेजर खुद फीस मंगवाने के लिए प्रवक्ता को भेजते हैं। दो-तीन बार चक्कर लगाने के बाद बड़ी मुश्किल से वह मिलते हैं। वह फीस के नाम पर पांच छात्रों के दाखिले के दो हजार रुपये पकड़ा देते हैं, साथ में यह कहना नहीं भूलते -‘‘मैनेजर साहब से बात कर लेंगे’’। प्रवक्ता मन ही मन भुनभुनाते हुए चले आते हैं-‘‘हमें क्या मैनेजर चाहें तो फ्री में दाखिले कर लें। हमसे फीस वसूली के लिए न कहें’’।
एकाध महीने बाद कालेज में जब फीस की समीक्षा की जाती है तब स्पष्ट होता है कि अभी तक एक चौथाई फीस भी नहीं आई। मैनेजर गुस्सा निकालते हैं स्टाफ पर, -‘‘क्या कर रहे हो, फीस तो वसूलो, जब फीस ही नहीं आएगी, कालेज कैसे चलेगा, कैसे खर्चे निकलेंगे? स्टाफ को बुलाकर धमकाते हैं, -‘‘सारे काम बंद कर बच्चों से फीस वसूली में जुट जाओ। एक-एक छात्र को घर पर फोन करो’’। वह बड़बड़ाते हैं, -‘‘मत पढ़ो लेकिन फीस तो दे जाओ’’।
सारे प्रवक्ता क्लास छोड़ फीस के लिए फोन करने में जुटे हैं। टिननटिनन-‘‘कौन बोल रहे हैं?’’ सतीश के पापा,-‘‘ हां तो बच्चे की फीस अभी तक पूरी जमा नहीं हुई। कल कालेज में आकर जमा करो’’।  -‘‘दाखिले के समय तो कहा था कि धीरे-धीरे दे देना। अभी से तगादा करने लगे, थोड़ा धैर्य तो रखो। फीस के पैसे लेकर कहां भाग जाएंगे? इम्तिहान से पहले दे देंगे’’। एक-एक करके बात की जा रही है,  तभी यह स्पष्ट होता है कि पांच छात्रों से फीस तो दो-दो हजार रुपये प्रिंसिपल ने पहले ही ले रखी है लेकिन जमा उसमें से एक चौथाई भी नहीं की। प्रिंसिपल से बात करो तो हर बार मैनेजर का हवाला देकर मुंह बंद कर देते हैं। ऊपर से यह भी कहते हैं-‘‘ मेरे छात्रों को फोन मत करो, जो भी उनसे कहना है मुझे बताओ, मैं उन्हें बता दूंंगा’’। 

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