बेड़ा गरक-6

डा. सुरेंद्र सिंह
कहने के लिए ये नेताजी हैं, झकाझक सफेद कमीज और ऐसी ही पेंट। बातें बहुत बड़ी-बड़ी। किसी का भी कोई काम मिनटों मे करवाने का वायदा।  कोई एक बार बात कर ले फंसे बिना नही रह सकता। हाथ में भारी सा बैग। उनका यह बैग ऐसा-वैसा नहीं है,  कई डिग्री कालेजों का चलता-फिरता कार्यालय है। इसमें कालेजों के ब्रोशर से लेकर प्रवेश फार्म, बैंक एकाउंट खुलवाने के लिए कालेज की मोहर लगे तथा हस्ताक्षरित फार्म आदि भूसे की तरह भरे रहते हैं। जहां भी जाते हैं, वह यह बताना नहीं भूलते कि वे फलां पार्टी के प्रदेश स्तरीय पदाधिकारी हैं। एक बार एमएलए का चुनाव भी लड़ चुके हैं, आगे भी इसके लिए प्लानिग कर रहे हैं।
कई कालेजो में इनका भारी रुतबा है। कारण यह है कि उन्हें चलवाने में उनका अच्छा खासा सहयोग रहता है। जाहिर है कि कालेज के मुख्य कर्ताधर्ता इन्हें सम्मान के साथ बुलाते हैं। साथ में खातिरदारी भी करते हैं। एकाध ने तो इन्हें अपने यहां आनरेरी कर्मचारी नियुक्त कर आईडेंटिटी कार्ड तक दे रखा है। घर पर कालेज के स्थानीय कार्यालय के बोर्ड भी लगे हैं। यह एक साथ अनेक मोर्चों पर तैयारी कर रहे हैं।
यह घर-घर जाकर श्क्षिा की अलख जगाते हैं। लोगों के बीच शिक्षा के अभाव के कारण कौम के पिछड़ेपन की दुहाई देते हैं। उद्धार के लिए कालेज में दाखिला करवाते हैं। दलितों की बस्तियों में पूछते हैं आपके घर में कोई पढ़ा लिखा है, बहुतों के घर से जवाब मिलता है- ‘‘हां है, इसने इसी साल इंटर पास की है क्या करोगे?’’ -‘‘हमें तो कुछ नहीं करना। हम तो आप लोगों के भले के लिए यह कहने आए हैंं, पढ़ना जरूर, चाहे इसके लिए कर्ज लेना पड़े। पढ़ने से ही तरक्की होगी, हमारी कौम के लिए इतनी नौकरियां हैं, उनके लिए पढ़े-लिखे नही मिल रहे। दाखिला हम करवाए दे रहे हैं जिंदगी बन जाएगी। दूसरा कोई ठग लेगा।  दाखिले के लिए किराया भाड़ा भी खर्च नहीं करना पड़ेगा। बैग से झटपट फार्म निकाला और खुद ही भरकर हस्ताक्षर करा लिए। -‘‘बाबूजी पैसे,- हां पंद्रह सौ निकाल। साथ में यह कहना नहीं भूलते कि कोई और होता तो ज्यादा ले लेता। अपने आदमी हो। तुम्हें छात्रवृत्ति दिलवा देंगे, बैंक में हमारी जानपहचान है। मैनेजर अपना ही आदमी है।’’ फार्म भर गया और पैसे आ गए, इसके बाद कोई पढ़े, न पढ़े उनकी बला से।
दिन भर घूमते हैं। नाते-रिश्तेदारों, मिलने-जुलने वालों को भी नहीं बख्शते। सबका भला करवाते रहते हैं। कालेज वालों को प्रति छात्र पांच सौ देते हैं, एक हजार अपनी जेब में रखते हैं। दिन भर में चार-पांच हो गए तो बहुत हैं। किसी-किसी दिन ‘अंधे के हाथ बटेर’ की तरह ज्यादा हाथ लग जाते है।  कालेज वालों के लिए तो यह मुफ्त के हैं। वे फीस के पैसे छात्रवृत्ति से वसूल लेते हैं। इस तरह दलितों, दलित नेता और शिक्षा तीनों का उद्धार होता रहता है।


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