बेड़ा गरक-३

डा. सुरेंद्र सिंह
डिग्री कालेज में एडमीशन के लिए आधा सीजन बीत चुका है, अभी तक ऐसी स्थिति नहीं बनी कि क्लास चल सकें। ज्यों-ज्यों दिन बीतते जाते हैं, प्रिंसिपल के चेहरे पर चिंता की लकीरे उतनी ही गहरी होती जाती हैं, ‘जवान बेटी के हाथ पीले करने की चिंता की तरह’। प्रबंधक  कई बार डांट चुके हैं, -‘‘कुछ करो, ऐसे ही हाथ पर हाथ रखे रहोगे’’। लिहाजा प्रिंसिपल को उपाय सूझा  क्यों न इंटमीडिएट कालेजों की मदद ली जाए। बच्चे तो यहीं आते हैं। लेकिन संबंध कैसे स्थापित किया जाए, यह एक अहम समस्या है।  दोनों के स्तर में अंतर है।  इंटरमीडिएट कालेज वाले तो डिग्री कालेज वालों के सामने पानी भरते हैं। पर मतलब निकालने को ‘गधे को बाप बनाना पड़ता है’, ‘कभी-कभी उल्टी गंगा भी बह जाती है’।  सो पहले लिस्ट बनाकर उन्हें चाय पर आमंंत्रित करते हैं। रोजाना उन्हें फोन पर दोस्ती भरी बातें कर उन्हें फंसाने की कोशिश करते हैं लेकिन वे कोई न कोई व्यस्तता का बहाना बना छिटक कर चालान लोमड़ की तरह दूर हो जाते हैं। चाय के नाम पर एक नहीं फटकता।
लिहाजा प्रिंसिपल को अब उनके पास जाने में भी एतराज नहीं है. ‘प्यासा कुंए के पास जाता है’, कुंआ किसी के पास चलकर नही आता। यह मान वह उपाध्यायजी को फोन करते हैं-‘‘आप तो व्यस्त हैं, मैं ही आपके पास चाय पीने आता हंंूं। पिलाओगे न?’’ -‘‘क्यों नहीं, आपका स्वागत है’’।
सौहार्दपूर्ण वातावरण में मुलाकात होती है। पहले हालचाल, फिर चाय की चुस्कियों के बीच मतलब की बात होती है। -‘‘उपाध्यायजी आपके पास तो बहुत से बच्चे हैं’’, -‘‘हां क्यों नही, पंद्रह सौ से  ज्यादा, पांच सौ से ज्यादा ने इंटरमीडिएट पास किया है। -‘‘इंटरमीडिएट वाले तो अब आपके यहां से चले ही जाएंगे, इन्हें हमारे यहां भेज दीजिए। हमारा भी काम चल जाएगा’’। -‘‘बिल्कुल भेज देंगे’’। प्रिसिपल के चेहरे पर प्रसन्नता की चमक उगती है। यह तो बना काम। बेमतलब में इतनी देर कर दी। सौ-दौ यहां से मिल जाएं और इसी तरह कुछ अन्य कालेजों से मिल जाएं तो काम फिट। उपाध्याय जी कहते हैं-‘‘क्या सोच रहे हो डाक्टर साहब? बोलो कितने चाहिए’’। -‘‘दो सौ दे दो’’। -‘‘तीन सौ ले लो, जितने चाहिए आपके लिए हाजिर हैं. आपसे मना थोड़े ही है, आपसे तो संबंध भी है,  लेकिन फीस कितनी है?’’ -‘‘बीए की छह हजार और बीएसएसी की सात हजार, परीक्षा शुल्क इसी में शामिल’’। -‘‘ठीक है, आप हम से बीए में तीन हजार और बीएससी में चार हजार लेते जाओ, जितने चाहिए, उतने छात्रों के दाखिले कराते जाओ’’। प्रिंसिपल को लगा जैसे भकभकाते तबे पर हाथ रख गया है। बिजली का करंट जैसा लगा। चेहरे पर पसीना आ गया। ऊपर का दम ऊपर और नीचे का नीचे रह गया। चक्कर सा आ गया। हाथ से गरम चाय का प्याला गिरते-गिरते बचा। मीठी चाय का स्वाद कसैला हो गया।
उपाध्यायजी गेट के बाहर गाड़ी तक छोड़ने आए। साथ में यह भी बता कर चले गए, -‘‘यहां का माहौल खराब है, फीस की वसूली मुश्किल से होती है, बहुत से बिना फीस के पढ़ जाते हैं। नकल करानी पड़ती है। नकल के लिए घर वाले लाठियां लेकर आते हैं, नकल न कराओ तो कोई पढ़ने ही नहीं आए। वैसे हम भी अपना डिग्री कालेज खोल रहे हैं। जब तक हमारा चालू नहीं होता, आप लेते जाइए’’।
प्रिंसिपल जल्दी से पिंड छुड़ाकर भागे। रास्ते भर दिमाग में आंधी चलती रही। हमें प्रति छात्र तीन हजार और चार हजार मिलेंगे, बाकी सब उपाध्यायजी लेंगे। कालेज हमारा, पढ़ाई हमारी, बिजली, पानी, सफाई, लाइब्रेरी हमारी, कमाई उपाध्यायजी की। प्रबंधकजी को यह बताने की हिम्मत ही नहीं पड़ी। उल्टी डांट पड़ेगी -‘‘अकल चरने चली गई थी, जो ऐसा सौदा करने चले थे। प्रति छात्र हजार पांच सौ तो ठीक है। पूरे के पूरे खुद हजम करने चले हैं। किसी और से बात करो’’।
दो दिन बाद गुप्ताजी से मिले। उन्होंने बिना लाग लपेट के पहले ही साफ कर दिया, -‘‘पहले हमने फलां कालेज वाले को दो सौ छात्र दिए थे। उन्होंने साढ़े तीन हजार प्रति छात्र फीस ली। प्रथम वर्ष में तो उन्होंने वायदा निभाया। द्वितीय वर्ष में पूरी फीस हजम करने लगे, लिहाजा हमने उन्हें छात्र देना बंद कर दिया। अब दूसरे कालेज से बात चल रही है, लेकिन अभी फाइनल नहीं है,  हम आपसे भी बात कर सकते हैं’’।

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