बेड़ा गरक-7
डा. सुरेंद्र सिंह
ये बाबूजी हैं, ऐसे ही जैसे दूसरे कालेजों के बाबू। फीस जमा करना, मार्कशीट काटना, प्रवेश करना, छात्रवृत्ति के फार्म भरना, कालेज का हिसाब-किताब रखना इनके पास ऐसे ही काम हैं जैसे दूसरे बाबुओं के। लेकिन ये आंखों पर मोटे चश्मे वाले गुजरे जमाने के काम से काम रखने वाले बाबू नहीं हैं, आधुनिक हैं। इनकी ंन केवल आधुनिक चाल-ढाल है बल्कि सोच भी आधुनिक है और ठाठ-वाट भी आधुनिक। इनके लिए निष्ठा-विष्ठा पुराने जमाने की चीज है। जो कुछ मिल जाए, वह अपना। ‘सबै भूमि गोपाल की’।
ये नौकरी एक कालेज की बजाते हैं लेकिन ईमानदारी से काम दूसरे कालेजों के लिए करते हैं। कालेज से छु्ट्टी ले ली, माताजी बीमार हैं, पहुंच गए दूसरे कालेज मे एडमीशन की लिस्ट देने। कभी नाना-नानी को मरी बता दिया। कभी पापा, भाई, भतीजे सबकी तकलीफों को अपने धंधे में भुनाते रहते हैं। दूसरे कई कालेजों के मालिकों से सीधे घर के से संबंध हैं। धंधा का धंधा, यदि एक कालेज से लात मारी जाए तो दूसरा तैयार। किसी को दस एडमीशन दिए तो किसी को बीस। एक साल में चालीस-पचास तक पहुंचा देते हैं। दूसरे जिलों और राज्यों के अपने जैसे लोगों से भी इनके संबंध हैं। एडमीशन का एक अच्छा खासा नेटवर्क है। मोटी कमाई वाले एडमीशन कराते हैं, बीए, बीएससी आदि छोटे-मोटे मामलों पर निगाह भी नही डालते। जैसे शेर पेट भर जाने के बाद शिकार से हट उसे दूसरे जानवरों के लिए छोड़ देता है। क्या मिलेगा, इन छोटे एडमीशनों में दो सौ-तीन सौ हद से हद पांच सौ। यदि कमाई वाले एडमीशन हों तो एक ही में आठ से दस हजार पक्के। लिहाजा ये इनसे साल में कालेज से मिलने वाली पगार से ज्यादा कमाई इन एडमीशनों से कर लेते हैं। मजे से रहते हैं , सदा सर्वदा चेहरे पर मुस्कराहट बिखरी रहती है। दूसरे लोग चिढ़ते हैं तो चिढ़तें रहे इनकी बला से। मेहनत करते हैं, कोई हंसी खेल है, एडमीशन कराना।
व्यवहार कुशल इतने कि आप नहंीं बोलना चाहें तो मत बोलिए। लेकिन ये आपसे बुलवाकर ही रहेंगे। भैया, दादा कुछ भी कह देंगे। पैर छू लेंगे। कालेज में आने वाले नए छात्र-छात्राओं पर ज्यादा निगाह रखते हैंं। कालेज ही नहीं मोहल्ले, आस पड़ोस के बच्चोंं से भी प्यार करते हैं, एक-एक करके सबसे हाल पूछते रहते है, -‘‘कौन कौन सी कक्षा में पढ़ रहे हो’’। जैसे पके आम की पहचान के लिए उसे दबाकर देखते हैं, उसी तरह ये बच्चों की टोह लेते रहते हैं कि कौन उनके मतलब का हो गया। उन सभी का भले से भला करवाने का दम भरते हैं। दलितों के बच्चों की सूची बनाकर रखते हैं। उनसे कहेंगे कि आप परेशान न हों, एक पैसा भी मत दो, एडमीशन ले लो। पास कराने की गारंटी हरेक की। इन्हें पता है कि दूध में से मक्खन कैसे निकाला जाता है।
ये बाबूजी हैं, ऐसे ही जैसे दूसरे कालेजों के बाबू। फीस जमा करना, मार्कशीट काटना, प्रवेश करना, छात्रवृत्ति के फार्म भरना, कालेज का हिसाब-किताब रखना इनके पास ऐसे ही काम हैं जैसे दूसरे बाबुओं के। लेकिन ये आंखों पर मोटे चश्मे वाले गुजरे जमाने के काम से काम रखने वाले बाबू नहीं हैं, आधुनिक हैं। इनकी ंन केवल आधुनिक चाल-ढाल है बल्कि सोच भी आधुनिक है और ठाठ-वाट भी आधुनिक। इनके लिए निष्ठा-विष्ठा पुराने जमाने की चीज है। जो कुछ मिल जाए, वह अपना। ‘सबै भूमि गोपाल की’।
ये नौकरी एक कालेज की बजाते हैं लेकिन ईमानदारी से काम दूसरे कालेजों के लिए करते हैं। कालेज से छु्ट्टी ले ली, माताजी बीमार हैं, पहुंच गए दूसरे कालेज मे एडमीशन की लिस्ट देने। कभी नाना-नानी को मरी बता दिया। कभी पापा, भाई, भतीजे सबकी तकलीफों को अपने धंधे में भुनाते रहते हैं। दूसरे कई कालेजों के मालिकों से सीधे घर के से संबंध हैं। धंधा का धंधा, यदि एक कालेज से लात मारी जाए तो दूसरा तैयार। किसी को दस एडमीशन दिए तो किसी को बीस। एक साल में चालीस-पचास तक पहुंचा देते हैं। दूसरे जिलों और राज्यों के अपने जैसे लोगों से भी इनके संबंध हैं। एडमीशन का एक अच्छा खासा नेटवर्क है। मोटी कमाई वाले एडमीशन कराते हैं, बीए, बीएससी आदि छोटे-मोटे मामलों पर निगाह भी नही डालते। जैसे शेर पेट भर जाने के बाद शिकार से हट उसे दूसरे जानवरों के लिए छोड़ देता है। क्या मिलेगा, इन छोटे एडमीशनों में दो सौ-तीन सौ हद से हद पांच सौ। यदि कमाई वाले एडमीशन हों तो एक ही में आठ से दस हजार पक्के। लिहाजा ये इनसे साल में कालेज से मिलने वाली पगार से ज्यादा कमाई इन एडमीशनों से कर लेते हैं। मजे से रहते हैं , सदा सर्वदा चेहरे पर मुस्कराहट बिखरी रहती है। दूसरे लोग चिढ़ते हैं तो चिढ़तें रहे इनकी बला से। मेहनत करते हैं, कोई हंसी खेल है, एडमीशन कराना।
व्यवहार कुशल इतने कि आप नहंीं बोलना चाहें तो मत बोलिए। लेकिन ये आपसे बुलवाकर ही रहेंगे। भैया, दादा कुछ भी कह देंगे। पैर छू लेंगे। कालेज में आने वाले नए छात्र-छात्राओं पर ज्यादा निगाह रखते हैंं। कालेज ही नहीं मोहल्ले, आस पड़ोस के बच्चोंं से भी प्यार करते हैं, एक-एक करके सबसे हाल पूछते रहते है, -‘‘कौन कौन सी कक्षा में पढ़ रहे हो’’। जैसे पके आम की पहचान के लिए उसे दबाकर देखते हैं, उसी तरह ये बच्चों की टोह लेते रहते हैं कि कौन उनके मतलब का हो गया। उन सभी का भले से भला करवाने का दम भरते हैं। दलितों के बच्चों की सूची बनाकर रखते हैं। उनसे कहेंगे कि आप परेशान न हों, एक पैसा भी मत दो, एडमीशन ले लो। पास कराने की गारंटी हरेक की। इन्हें पता है कि दूध में से मक्खन कैसे निकाला जाता है।
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