बेड़ा गरक

डा. सुरेंद्र सिंह
क्यूएस वर्ल्ड यूनिवर्सिटी रेकिंग पर तो बेकार में गुस्सा करते है, उसने हमारे किसी भी विश्वविद्यालय को दुनिया के दो सौ श्रेष्ठ विश्वविद्यालयों मेंं नहीं माना। लेकिन स्थिति इससे भी ज्यादा  खराब है। बल्कि खराब से भी खराब है। न केवल उच्च श्क्षिा बल्कि माध्यमिक शिक्षा और उससे नीचे प्राथमिक शिक्षा। पूरा अवा का अवा खराब हो चला है। शिक्षा का बेड़ा गरक है। बानगी के तौर पर इनसे मिलिए, ये जनाब बीएससी (मैथ) प्रथम वर्ष में दाखिले के लिए आए हैं। इंटरमीडिएट में शायद ही किसी दिन पढ़ने के लिए गए होंगे। लेकिन नंबर पूरे ८५ प्रतिशत। प्रिसिंपल के सामने ऐसे तन कर बैठे हैं, जैसे ये नहीं वे ही प्रिंसिपल हों, उनकी आंखों में आंखें डालकर पूछ रहे हैं, आपके यहां क्या परसेंटेज बन जाएगी? यहां भी वह पढ़ेंगे नहीं, सिर्फ परीक्षा देंगे। नकल की गारंटी हो तो एडमीशन लें। पढ़ाई किसे चाहिए, सबको तो परसेंटेज की जरूरत है।
आप क्या सोच रहे हैं प्रिसिंपल साहब उसे डांट कर भगा देंगे। उससे कहेंगे तुम्हारी ऐसा कहने की हिम्मत कैसे हुई? यदि ऐसा करेंगे तो यह उनकी भारी भूल होगी। इससे वे नाकारा साबित हो सकते है। मैनेजमेट की फटकार खानी पड़ सकती है, -‘‘अकल खराब हो गई थी सो अच्छा खासा एडमीशन हाथ से निकल जाने दिया’’। कुर्सी भी छिन सकती है। छात्र को लपकने बहुत से कालेज भूखे शेर की तरह तैयार बैठे हैं। दलाल छोड़ रखे हैं। अलग-अलग कक्षाओं में एडमीशन के लिए अलग-अलग रेट। फीस के अनुपात में कमीश्न। बहुतों को ऐसे ही छात्रों की जरूरत है। न टीचिग स्टाफ की जरूरत और न अन्य स्टाफ की, न बिजली का खर्चा और न चाय आदि का। एक बाबू और एक चपरासी से काम चल जाता है।
प्रिंसिपल साहब असमंजस में है, कुर्सी की प्रतिष्ठा और अपने सम्मान का भी सवाल है इसलिए विषय को घुमाने के लिए दूसरे सवाल करते हैं। कहां से आए हो बेटे, परिवार में कौन-कौन हैं। पिताजी क्या करते हैं आदि-आदि। छात्र को अच्छी पढ़ाई का वायदा करते हैं। लेकिन छात्र के लिए ये सारे सवाल बेमानी हैं। उसे तो नकल की गारंटी चाहिए। वरना उठने के लिए तैयार बैठा है।
इस बीच माजरा भांप चपरासी आता है, छात्र को इशारे से बाहर ले जाता है। पूछता है- ‘‘दाखिला ले लिया?’’ -‘‘अरे, कैसे ले लें? क्या प्रिसिपल बैठा दिया है। इसमें तमीज नहीं है। हमारा  पहला प्रिंसिपल था, उसने एडमीशन फार्म भरने के लिए साथ ही बोल दिया था, -‘‘जाओ बच्चू अब केवल परीक्षा देने के लिए आना। नकल की गारंटी है। यदि पेपर देने में असुविधा हो तो उसका भी इंतजाम है’’। चपरासी उसके कंधे पर हाथ रख आश्वस्त करता है, -‘‘नकल की चिता मत कर हम हैं तो। यह हमारी गारंटी है। नकल कोई प्रिंसिपल थोड़े ही कराता है। यह काम तो स्टाफ का काम है।  जितने चाहो नंबर ले लेना। लेकिन दाखिला यहीं पर लेना। बाकी सब चिंता सब हम पर छोड़। ला निकाल। जितना हो अब हो दे दे, बाकी आराम से देते रहना। तुझ से कोई शिकायत नहीं करेगा। कोई कहे तो मेरा नाम ले देना। मैं अपने कोटे से दाखिला दिला रहा हूं’’।
चपरासी छात्र से एक हजार रुपये लेता है। उसमें से पांच सौ अपने कमीशन के काट बाकी फीस में जमा करवा देता है। बाद में प्रिंसिपल के पास जाकर उन पर प्रभाव जमाता है, -‘‘सर यह केस तो हाथ से निकल ही गया था, वह तो पुराना परिचय निकल आया। इसलिए मामला संभल गया। वरना वह तो पास के कालेज में दाखिले के लिए तैयार बैठा था’’। प्रिंसीपल साहब चपरासी की पीठ थपथपाते हैं, -‘‘ऐसे ही लगे रहो, अब तुम्हारा ही भरोसा है, बाकी लोग तो निकम्मे हैं। कालेज में ज्यादा से ज्यादा दाखिले कराने हैं। तुम्हारे जैसा एकाध और हो तो ले आओ’’।

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