बेड़ा गरक-५

डा. सुरेंद्र सिंह
ललुआ की पान की दुकान है। वह पढ़ा-लिखा ज्यादा नहीं है, मुश्किल से आठ होगा, इससे कम भी हो सकता है, ज्यादा हरगिज नहीं। लेकिन वह पढ़े-लिखों के कान काटता है। कालेजों के प्रवेश फार्म वह कालेज वालों से भी ज्यादा फर्राटे से भरता है। इस जमात में उसकी इतनी जान पहचान है उतनी किसी एमएलए की भी नहीं होगी। आसपास चारों ओर १०-१५ किलोमीटर के दायरे में शायद ही कोई ऐसा युवक होगा जो उसे नहीं जानता हो। कालेजों के प्रिंसिपल और मैनेजर उसे न केवल सम्मान के साथ बुलाते हैं बल्कि चाय भी पिलाते हैं।
उसकी दुकान भी क्या है पिद्दी सी। एक छोटे से खोखे में पान के अलावा बीड़ी, सिगरेट, पान मसाला आदि से ज्यादा कागज भरे रहते हैं। वह भी रद्दी के नहीं, कालेजों के। किस कालेज में दाखिला लेना है, किसी के पास जाने की जरूरत नहीं, कालेज में पैर मत रखिए। ललुला से मिलिए। वह दुकान से ही एडमीशन करा देगा। बल्कि यह कहिए कर देगा। फीस भी ज्यादा नहीं लेगा। -‘‘ललुआ भाई हमें बीए में दाखिला लेना है’’। इतना बताने की जरूरत है। वह आसपास के तकरीबन सारे कालेजों की फीस और सुविधाएं एक ही सांस में बता देगा। यह छात्र के ऊपर निर्भर है, वह कहां दाखिला चाहता है। वहीं पर फार्म भरवा देगा,  फीस ले लेगा और स्टूडेंट से कह देगा जाओ अपने घर। कक्षाएं चलेंगी तब बता देंगे। कालेज में एक भी दिन न पढ़कर परीक्षा दिलाने से लेकर परीक्षा में पास कराने तक की गारंटी ललुआ दे सकता है।
दुकान पर उसके पास कोई पान खाने वाला आ जाए और दूसरी ओर उससे एडमीशन की बात करने कोई आ जाए तो वह पान खाने वाले को टहला देगा, एडमीशन वाले को मुफ्त में सिगरेट भी पिला देगा। कारण यह है कि उसकी रोजीरोटी अब जितनी एडमीशन से चलती है, उतनी पान, बीड़ी, सिगरेटं से नहीं।  पान तो जरिया है। कभी चलती होगी। अब तो उसका सबसे बड़ा धंधा एडमीशनं का है। चाहे बीटेक में दाखिला लेना है, चाहे बीए, बीएससी, एमए, एमएससी, बीबीए, बीसीए, बीकाम, एलएलबी। वह न केवल एडमीशन करा सकता है बल्कि छात्र-छात्राओं की दिक्कतों का समाधान भी करा सकता है।  कालेज वालों के फोन अक्सर उसके पास घनघनाते रहते हैं, कई लोग उसे प्यार से लाल सिंह कह कर बुलाते हैं- ‘‘अरे भाई अब तो दिखाई भी नहीं देते हो। जरा हमारे कालेज का भी ध्यान रखो’’। -‘‘सर आप चिंता नहीं करें, लेकिन इस साल रेट कुछ बढ़ा दीजिए देख रहे हैं, महंगाई कितनी बढ़ रही है’’। -‘‘महंगाई तो सबके लिए बढ़ रही है लेकिन फीस तो नहीं बढ़ रही। फीस बढ़ने दो या फिर हमें हमारी फीस दे दो, ऊपर से चाहे जितना ले लो’’।
एडमीशन का सीजन शुरू होते ही कई कालेजों से उसका पक्का सौदा हो जाता है। उसके फार्म और ब्रोशर भी उसकी दुकान पर आ जाते हैं। वह फार्म भरकर कालेजों में पहुंचा देता है तो कई बार कालेज वाले उसके पास आकर ले जाते हैं।  ललुआ ही केवल ऐसा नहीं है, ऐरा-गैरा नत्थू खैरा विभिन्न नामों से अनेक ललुआ हैं जो कहने कंो कोई भी काम करते हैं, असल में ललुआ के पद चिन्हों पर अपना और दूसरों का भला कर रहे हैं।

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