बहती गंगा में धोए हाथ
यूं तो कोरोना युग में देश ने बहुत कुछ खोया है, इंसान, धन संपत्ति, खेती-बाड़ी, नौकरी-पेशा, मान-मर्यादा। लेकिन इसके नाम एक उपलब्धि भी है, - कोरोना वारियर्स सम्मान । इतना सम्मान आजादी से अब तक कभी नहीं बंटा। किसी दशक में नहीं, किसी आपदा में नहीं। सत्ताएं आई- गई। लोग बने-बिगड़े। इस तरह कभी किसी ने ध्यान नहीं दिया।
आसमान से लेकर धरती तक, समुद्र से लेकर गली मोहल्लों तक में सम्मान ही सम्मान रहा। दिन में सम्मान और रात्रि में भी सम्मान। जिन्होंने कुछ किया, उनकी छोड़ो, उनके लिए काम ही सम्मान है। जिन्होंने कुछ नहीं किया, सालों से घर बैठे लोग भी सम्मान पा गए। सोशल मीडिया पर सम्मान पाने वालों की बाढ़ सी आ गई। जिसे दिखो, वही सम्मान पत्र चमका रहा है, - भाई साहब हमारे पास भी है। कुछ लोग कई-कई सम्मान पा गए। सम्मान पाने वाले थक गए होंगे, अब रहने दो भाई बहुत है, लेकिन देने वाले नहीं। सम्मान देने के लिए उनका हाथ बना‘धना भगत का खेत’ । ऐसी-ऐसी संस्थाएं मैदान में आ गई, जिनका पहले कोई नाम लेवा न पानी देवा था।
विपदा के मारे लोगों के लिए बहुतों ने बहुत कुछ किया। पैसा दिया, खाना दिया, घर पहुंचाने का इंतजाम किया। बहुतों ने फोटो कराना तो दूर किसी को बताया तक नहीं। आत्मसंतुष्टि भी कोई चीज है। पर कुछ लोग दूसरे के माल पर भी अपना फोटो चमकाते रहे। तमाम लोगों ने सिर्फ और सिर्फ सम्मान पत्र बांटे। किसी ने पूछा-भाई आप क्यों बांट रहे हो? बोले-सरकार ने कही है, कोरोना वारियर्स का सम्मान करो। सो हम कर रहे हैं, ताली-थाली को कौन याद रखेगा, हम पक्का इंतजाम कर रहे हैं। लोग मढ़वाकर घरों में टांगेंगे तो कम से कम याद तो रखेंगे। संस्था का प्रचार होगा। इससे सस्ता प्रचार जिंदगी में नहीं हो सकता।
सम्मान भी कोई चीज है। भगवान का दिया सब कुछ हो पर सम्मान पत्र नहीं मिले तो जीवन सूना-सूना सा लगता है। कम से कम उम्र के चौथेपन में तो मिलना ही चाहिए। पहले लोग सम्मान के लिए जीवन भर तपस्या करते थे, फिर भी रह जाते । कभी-कभी मरने के बाद मिल पाता । फिर एक समय ऐसा भी आया जिसमें सम्मान के लिए जुगाड़ लगानी होती, चिरोरी करनी पड़ती। सम्मान करने वाले सम्मान पत्र के साथ थैेली देते, सम्मान पाने वाले कृतज्ञता से उसे बगल से वापस कर आते। इसके बाद सम्मान पत्र के लिए जेब ढीली होने लगी। इस बार सम्मान क्रांति आई है। इसमें सम्मान करने वाले ढूंढ रहे हैं कोई सम्मान लेने वाला मिल जाए। छोटे-छोटे लौंड़े-लपाड़े जिन्हें नाड़ा बांधना नहीं आता, वे भी सम्मान पत्रों से सुशोभित हैं। ऐसे लोगों की कमी नहीं है, जिन्होंने भूख और प्यास से तड़प-तड़प कर जान दे दी। लेकिन ऐसा आदमी मुश्किल से मिलेगा जिसने सम्मान की इच्छा जताई और इससे वंचित रह गया हो।
तकनीक का जमाना है। सोशल डिस्टेसिंग रखनी है। कंप्यूटर पर बढ़िया सी डिजायन तैयार कराई और नाम लिख-लिख कर फारवर्ड करने लगे। हल्दी लगे न फिटकिरी, रंग चोखा ही चोखा। जिनकी गरज पड़ी है, वे प्रिंट निकलवा कर ड्रैसिंग रूम में सजाएं। जिन भाइयों ने कोरोना पीड़ितों या कोरोना वारियर्स के लिए अभी तक कुछ नहीं किया है, लेकिन इसकी इच्छा रखते हैं, वे पछता रहे हैं कि इतनी बड़ी विपदा में वे कुछ नहीं कर पाए। उनके लिए अभी भी समय है, अभी कुछ नहीं बिगड़ा। चाहे तो वे भी ऐसा कर सकते हैं। बहती गंगा में हाथ धोते रहने में क्या हर्ज? किसी ने ठीक ही कहा है, लेने वाले से देने वाला बड़ा होता है।
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