अमेरिका में गृह युद्ध क्यों?
-डा. सुरेंद्र सिंह
अमेरिका में एक अश्वेत नागरिक की हत्या के बाद उपजा जनआक्रोश आजकल दुनिया भर मेंं सबसे ज्यादा सुर्खियों में है। सौ से ज्यादा साल बाद आई कोरोना महामारी जिसने पूरे विश्व को हिला दिया है, पौने चार लाख से ज्यादा जिसमें मर चुके हैं, अभी और कितने इसकी चपेट में आएंगे, इसर्की ंचता को भी इसने पीछे धकेल दिया है। सारी दुनिया टकटकी लगाए हैं अमेरिका में अब क्या होगा? इसे गृहयुद्ध की संज्ञा दी जा रही है। आखिर यह गृहयुद्ध क्यों है?
इसके मूल में अश्वेत नागरिक जार्ज फ्लायड की पुलिस अभिरक्षा में मृत्यु को बताया जा रहा है। जार्ज फ्लायड का कसूर यह था कि उसने एक दुकानदार को बीस डालर का नकली नोट चलाने का प्रयास किया। पुलिस ने उसे पकड़ लिया और सड़क पर गिराकर उसे बेरहमी से पीटा गया। उसकी गर्दन पर पुलिस अधिकारी ने अपना घुटना रख दिया। वह चिल्लाता रहा कि उसे सांस लेने में दिक्कत हो रही है। मौके पर मौजूद लोग भी उसे छोड़ने की अपील करते रहे लेकिन उस पर दया नहीं आई। अस्पताल में उसकी मौत हो गई। यह वीडियो पब्लिक में वायरल हो गया। फिर क्या था, देखते ही देखते जन आक्रोश ने इतना विकराल रूप ले लिया है कि वह थामे नहीं थम रहा है। देश के करीब 40 शहरों में कफ्र्यू लगाना पड़ा। 15 से ज्यादा राज्य इसकी चपेट में आ गए। प्रदर्शनकारी ह्वाइट हाउस तक कई बार पहुंच चुके हैं। पुलिस ने कई बार की झड़प के बाद प्रर्दशनकारियों के आगे घुटने टेक दिए हैं। राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप को एक बार को बंकर में शरण लेनी पड़ी। स्थिति पर नियंत्रण के लिए बाद में उन्होंने सेना के इस्तेमाल तक की धमकी दे डाली।
अमेरिका में पहला गृह युद्ध वर्ष 1861 से 1865 के बीच उत्तर और दक्षिण के राज्यों के बीच हुआ था। उसका कारण दास प्रथा था जिसे दक्षिण के राज्य अपनाए हुए थे, उत्तर के राज्य इसके खिलाफ थे। लेकिन जिस तरह का गृहयुद्ध अब है, उसकी तुलना 1968 में मार्टिन लूथर किंग (जूनियर) की हत्या के बाद उपजे जनआक्रोश से की जा रही है। मार्टिन लूथर अश्वेत नेता थे। देश में उनकी अपनी पहचान थी। उनके चाहने वाले थे।
लेकिन जार्ज फ्लायड तो अपराधी था। ठीक है, उसका इतना कसूर नहीं था जितनी कि उसे सजा दी गई। सजा का तरीका भी गलत था। जिस तरह से उसकी हत्या की गई, उसका विरोध किया जाना चाहिए। यह अमेरिकी समाज का दुनिया भर के लिए यह अच्छा संदेश है कि रंगभेद अब बर्दाश्त नहीं किया जाएगा। यदि यह केवल और केवल रंगभेद का ही विरोध है तो इसे अमेरिकी पुलिस अधिकारियों द्वारा सार्वजनिक रूप से माफी मांगे जाने और घुटने टेकने के बाद शांत हो जाना चाहिए। अमेरिकी समाज से इतनी समझदारी की अपेक्षा की जानी ही चाहिए। लेकिन आक्रोश थामे नहीं थम रहा है। प्रदर्शनकारियों में अश्वेतों से साथ काफी पैमाने पर श्वेत नागरिक भी हैं। इसके अलावा अमेरिका में रंगभेद की घटनाएं कभी-कभी होती ही रहती हैं। लेकिन कभी उन्होंने इस तरह तूल नहीं पकड़ा। इससे यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि इसके अंत:स्थल में कुछ और भी सकता है।
जब कभी कोई मामूली घटना तूल पकड़ती है तो उसके पीछे और बहुत सारे कारण छिपे होते हैं। हिंदुस्तान में वर्ष 2011 मेंं सामाजिक कार्यकर्ता अन्ना हजारे के नेतृत्व में पूरा देश सड़कों पर आ गया था तो वह केवल अन्ना हजारे और उनकी टीम का करिश्मा नहीं था जैसा कि उस समय प्रचारित किया गया। अन्ना हजारे ने उसके बाद फिर कई बार दिल्ली में उसी स्थल पर धरना दिया, उसमें मुट्ठीभर लोग ही आए। दरअसल वह कांग्रेस सरकार के खिलाफ जनआक्रोश था जो सालों से चला आ रहा था। उस आंदोलन को उनके विरोधियों का भी अप्रत्यक्ष समर्थन था। उसी तरह अमेरिका में यह जनआक्रोश केवल पुलिस के खिलाफ नहीं, सत्ता प्रतिष्ठान के खिलाफ भी है?
याद रहे कि राष्ट्रपति ट्रंप ने जबसे सत्ता संभाली हैं, तभी से उनके मार्ग में रोड़े पर रोड़ आ रहे हैं। यहां तक कि उनके शपथगृहण समारोह के दौरान भी भारी प्रदर्शन किए गए। भरसक कोशिश की गई कि वह शपथ नहीं लें। उनके खिलाफ महाभियोग का प्रस्ताव लाया गया। प्रस्ताव प्रतिनिधि सभा (भारतीय लोकसभा के समकक्ष) से पास भी हो गया। लेकिन सीनेट में ट्रंप की पार्टी का बहुमत होने के कारण पास नहीं हो सका। लिहाजा वह बच गए। विरोधी हाथ मलते रह गए। ट्रंप ने अपने कार्यकाल में अनेक ऐसे कदम उठाए हैं, जिनका पुरजोर विरोध है चाहे वह मोक्सिको से सटे देश की सीमा पर दीवार का मसला हो अथवा धर्म विशेष के देशों के लोगों के खिलाफ प्रतिबंध के आदेश। फिर इसी साल नवंबर माह में राष्ट्रपति पद के लिए चुनाव हैं। ट्रंप फिर से ताल ठोंक रहे हैं। जबकि विरोधी इस बार उन्हें किसी भी कीमत पर हटाने के लिए तुले हुए हैं। ऐसे में वे ट्रंप के खिलाफ विरोध को हवा क्यों नहीं दे सकते?
कोरोना की सबसे ज्यादा कीमत अमेरिका को चुकानी पड़ रही है। दुनिया की सबसे बड़ी ताकत होने के बावजूद वह कमजोर और कम साधन संपन्न देशों से भी पिछड़ रहा है। इसके लिए भी ट्रंप की जबर्दस्त आलोचना की जा रही है। कई शीर्ष अधिकारियों से लेकर विद्वानों और नेताओं द्वारा इस विफलताके लिए ट्रंप की नीतियों को जिम्मेदार ठहराया जा रहा है। ट्रंप ने अपने बचाव में इसका ठीकरा दूसरे नंबर की ताकत चीन के सिर पर फोड़ने के लिए उसके खिलाफ बिगुल बजा दिया है। उसे शिकस्त देने और आर्थिक रूप से हानि पहंचाने के लिए वह जी-7 का पुनर्गठन कर रहे हैं। इसमें वे भारत के अलावा आस्ट्रेलिया और दक्षिण कोरिया को शामिल करने जा रहे हैं। ऐसे में चीन क्यों कर ट्रंप के खिलाफ कोई कोर कसर बाकी रखेगा? यही नहीं उन्होंने विश्व स्वास्थ्य संगठन को चीन का पिट्ठू बताते हुए उसकी न केवल आर्थिक सहायता बंद कर दी है, बल्कि उससे अलग होने का भी ऐलान कर दिया है। ऐसा करने से फार्मास्युटिकल्स कंपनियों को नुकसान हो सकता है। जाहिर है कि जब ट्रंप के खिलाफ इतना सारा गुस्सा है तो वह अवसर पाकर कहीं न कहीं तो निकलेगा ही?
कोई दो राय नहीं कि ट्रंप अमेरिका को और सशक्त राष्ट्र बनाने में लगे हैं। उनकी नीतियों का सार है-अमेरिकन फस्र्ट। वह अमेरिकन के हित में किसी से भी पंगा ले लेते हैं। लेकिन उनकी बोली भाषा का यह आलम है कि उनके अधीनस्थ भी दबी जबान टिप्पणी करने से नहीं चूकते। कभी-कभी लगता है कि अमेरिका में ट्रंप से खुश ही कौन है?
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