अमेरिका से सबक

                          
                                 
विश्व की सबसे बड़ी ताकत अमेरिका आजकल कई मुश्किलों से घिरा है। एक ओर जहां कोरोना को लेकर भयावह हालात हैं तो दूसरी ओर दो अश्वेत नागरिक जार्ज फ्लायड और रशार्ड ब्रूक्स की मृत्यु से नस्लवाद के खिलाफ भयंकर जनाक्रोश है। ये मामले दुनिया भर के लिए सबक हैं, हमारे देश के लिए भी। समय रहते संभल जाना चाहिए क्योंकि अब दुनिया तेजी से बदल रही है। किसी  एक देश की अमानवीयता वहीं तक सीमित रहे यह हमेशा संभव नहीं है, उसकी प्रतिक्रिया दुनिया भर में हो सकती है। यह इस बात का संकेत है कि विश्व स्तर पर अब मानवतावादी एक नई समझ विकसित हो रही है।
पहले जार्ज फ्लायड को लेते हैं, उसका कसूर यह था कि उसने बीस डालर का नकली नोट एक दुकानदार को चलाने की कोशिश की। वह पकड़ा गया। पुलिस अधिकारी उसे घसीटकर ले गया और सड़क पर गिराकर उसकी गर्दन परअपना घुटना रख दिया। वह चिल्लाता रहा, उसने यह भी कहा कि उसका दम घुट रहा है लेकिन पुलिस अधिकारी को दया नहीं आई। फलत: उसकी अस्पताल में मृत्यु हो गई। वह अपराधी था लेकिन उसका कसूूर इतना नहीं था कि उसे मृत्यु दे दी जाए। मामले ने इतना तूल पकड़ा कि न केवलअमेरिका के अधिकांश राज्य  बल्कि यूरोप और उसके बाहर के अनेक देश जनाक्रोश की चपेट में आ गए। यह मामला शांत भी नहीं हुआ किअमेरिका के दूसरे शहर अटलांटा में अश्वेत नागरिक रशार्ड ब्रुक्स की पुलिस अधिकारी ने गोली मारकर हत्या दी।। ब्रूक्स के बारे में कहा जा रहा है कि वह नशे की हालत में वाहन चला रहा था, पुलिस अधिकारी ने उसे रोका तो उसने पुलिस अधिकारी की बंदूक छीन ली थी। गलती तो उसकी भी थी लेकिन उतनी नहीं जिसके लिए उसे गोलियों से भूना गया।  इसे लेकर भी हिंसक प्रदर्शन शुरू हो गए हैं। नए जमाने के लोग अब काले और गोरे का भेद मानने के लिए तैयार नहीं हैं, तभी तो काले लोगों के समर्थन में गोरे भी हैं।
दोनों ही मामलों में अमेरिका में सख्त कदम उठाए गए हैं। जार्ज फ्लायड के मामले में जहां अमेरिका की मिनियापोलिस सिटी काउंसिंल ने पुलिस महकमे को ही खत्म कर दिया है। पुलिस के स्थान पर सामुदायिक नेृतत्व वाला सुरक्षातंत्र  विकसित करने की घोषणा की गई जिससे फिर किसी के साथ ज्यादती नहीं की हो सके। मिनियापोलिस में ही फ्लायड की पुलिस उत्पीड़न में मृत्यु हुई।  वहीं ब्रूक्स की हत्या करने वाले पुलिस अधिकारी को बर्खास्त कर दिया गया है तो पुलिस प्रमुख को इस्तीफा देना पड़ा है। ये दोनों मामले पुलिस उत्पीड़न और रंगभेद से जुड़े हैं।
अपने यहां दोनों तरह की समस्याएं जबर्दस्त हैं। रंगभेद के स्थान पर यहां सांप्रदायिकता और जातिवाद है। इसमें से जातिवाद सदियों से चली आ रही प्रथा है तो सांप्रदायिकता को राजनीतिक स्वार्थपूर्ति के लिए हवा दी जाती रहती है। इसके कारण यदाकदा सांप्रदायिक दंगे होते रहते हैं, जिसमें अनेक निर्दोष लोगों की जानें जाती  रहती हैं, बड़े पैमाने पर सरकारी और गैरसरकारी की संपत्ति की हानि होती रहती है। फिर भी मौका आने पर लोग चूकते नहीं है।  हाल ही में कुछ जमातियों को लेकर धर्म विशेष के सारे लोगों को निशाना बनाया गया। सुनियोजित तरीके से प्रचार कर गरीब सब्जी की ठेल लगाने वाले और मिस्रियो का बहिष्कार कराया गया। इससे दुनिया भर में देश की बदनामी हुई। नेतागण यह क्यों नहीं समझ पा रहे हैं कि अब मध्ययुग के तौर-तरीके ज्यादा दिन काम नहीं आ सकते। पुरानी पीढ़ियां खत्म हो रही हैं, नए जमाने के लोग हैं जिन्हें ज्यादा दिन तक  धर्म के नाम पर भरमाया नहीं जा सकता है, सब पूरी दुनिया को देख रहे हैं। वे सही और गलत में फर्क जानते हैं।
 पुलिस ज्यादतियों की तो अंतहीन कहानियां हैं। उनके खिलाफ अनेक बार जनाक्रोश भी फैलता रहा है। कई बार पुलिस के खिलाफ राज्य भर में प्रदर्शन हुए हैं। अदालतों की टिप्पणियां आए दिन पुलिस के खिलाफ आती रहती हैं। ह्यूमैन राइट वाच की 2016 की एक रिपोर्ट के अनुसार भारत में 2010 से 1015 के बीच पुलिस हिरासत में 591 मौत हुईं। ये वह आंकड़े हैं जो पुलिस ने ही अंतरराष्ट्रीय संस्था को उपलब्ध कराए। वास्तविक आंकड़े इससे काफी ज्यादा होंगे। रिपोर्ट में गया है कि सुप्रीम कोर्ट ने डीके बोस बनाम पश्चिम बंगाल सरकार मामले में 1977 में पुलिस अभिरक्षा  में मौते रोकने के लिए कुछ निर्देश दिए, जिन्हें दंड प्रक्रिया संहिता में शामिल कर लिया गया है। लेकिन इसका समुचित तरीके से पालन अभी तक नहीं किया जाता है। एक न्यायिक अधिकारी के हवाले से कहा गया है कि अपराध उगलवाने की पुलिस की अपनी ही प्रक्रिया है।
जब पुलिस हिरासत में लोग मर जाते हैं, तब उन्हें आत्महत्या, बीमारी से मरने या प्राकृतिक कारणों के मत्थे मढ़ देते हैं। यदि कोई इसकी शिकायत करे तो परिवारीजनों को डराते, धमकाते हैं। विभागीय जांच में अपने साथियों को बचाने के प्रयास किए जाते हैं। ह्यूमैन राइट वाच ने सिफारिश की कि पुलिस हिरासत में मौतें रोकने के लिए कानून बनाया जाए। नया कानून बनाने की छोड़िए, पुलिस अभी भी 1861 के लार्ड कार्नवालिस के कानून से संचालित होती है। अंग्रेजों को ऐसी पुलिस की जरूरत थी जो उसके इशारों पर नाचे और पब्लिक को डराधमका कर रखे। देश की आजादी के इतने साल बाद भी सरकारों को वैसी  ही पुलिस की जरूरत है। तब से ब्रिटेन में अंग्रेजों ने पुलिस एक्ट में ढाई दर्जन से ज्यादा संशोधन कर लिए हैं। उनके यहां पुलिस कर्मी को सभ्य इंसान माना जाता है और अपने यहां जनता के बीच  पुलिस की  छवि सरकारी गुंडा जैसी  है। अपने यहां आपराधिक घटना होने पर भी लोग पुलिस की शरण में तब तक नहीं जाना चाहते जब तक कि बहुत जरूरी नहीं हो।  अंग्रेजों के जमाने के सैकड़ों कानून बदल गए। लेकिन पुलिस को अभी तक नहीं सुधार पाए हैं। उसका नतीजा ही नागरिकों को भुगतना पड़ता है।
तीसरी समस्या कोरोना संक्रमण की  है, जिसकी चपेट में सबसे ज्यादा  अमेरिका  है। विश्व में सबसे ज्यादा संक्रमित और मरने वाले अमेरिकी है। दुनिया के अनेक छोटे-छोटे न्यूजीलेंड जैसे देशों ने अपने यहां इस महामारी पर काबू पा लिया है, वहीं अमेरिका में इसका प्रकोप थमने का नाम नहीं ले रहा है। अमेरिकी प्रशासन की विवशता इस बात का सबक है कि बड़े-बड़े शक्तिशाली हथियारों और मजबूत अर्थव्यवस्था  से ज्यादा महत्वपूर्ण इंसानों की जिंदगी बचाने की व्यवस्था है। कोरोना के बाद की नई दुनिया बहुत कुछ बदली-बदली सी होगी, उसका वही सिकंदर होगा जो इस महामारी को अवसर में बदल पाएगा।

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