राम कथा पार्ट-3 अरण्यकांड

 


एक बार प्रभु श्रीराम ने एक मनोहर स्थान पर बैठकर सीताजी के लिए पुष्पों के गहने बनाए फिर पहनाए। तब इंद्र के पुत्र जयंत ने काक का रूप रख भगवान राम के बल की परीक्षा लेनी चाही। उसने सीताजी के पैरों में चोंच मारी। खून बहने लगा तो श्रीरामजी ने उसे मारने के लिए तीर चला दिया। जयंत मारा-मारा तीनों लोकों में गया। ब्र्ह्मा जी और अन्य देवताओं से शरण मांगी लेकिन कहीं पर उसे मदद नहीं मिली। यहां तक कि इंद्र ने भी उसे भगा दिया। फिर वह नारद जी से मिला तो उनकी सलाह पर  प्रभु राम की शरण में आया तभी बच सका। राम ने उसकी एक आंख निकालकर जान बख्श दी।  शंकरजी पार्वती से कह रहे हैं कि प्रभु श्रीराम के बैरी को कहीं कोई आश्रय नहीं दे सकता।

कुछ समय चित्रकूट में रहने के बाद राम, सीता और लक्ष्मण अत्रि ऋषि के आश्रम में पहुंचे। अत्रि ने राम की स्तुति की। यहां ऋषि की पत्नी अनुसुइया ने सीता को पतिव्रत धर्म के बारे में समझाया। उन्होंने महिलाओं के प्रकार बताए। और श्रेष्ठ पतिव्रता नारी उसे बताया जो अपने पति के अलावा किसी अन्य के बारे में स्वप्न में भी विचार नहीं करती, पति की सेवा में ही लगी रहती है।  राम ने आगे प्रस्थान कर विराध राक्षस का वध कर उसे अपने लोक में पहुंचाया। बाद में शरभंग ऋषि से भेंट की। वह राम के दर्शनों की अभिलाषा में ही वहां निवास कर रहे थे। अभिलाषा पूर्ण होने पर उन्होंने योगाग्नि से  अपने शरीर को जलाकर ब्रह्मलोक को प्रस्थान किया।  रास्ते में  राम  सुतीक्ष्ण के आश्रम में गए तो वह भक्ति में इतने लीन थे कि प्रभु राम को उनके ह्रदय में अपना चतुर्भुज रूप दिखाना पड़ा। घ्यान खुलने पर वह उन्हें  गुरू महर्षि अगत्स्य के आश्रम में लेकर गए। जहां श्रीराम सहित तीनों ने उनसे आर्शीवाद लिया।  प्रभु श्रीराम ने दोनों की भक्ति से प्रभावित होकर उन्हें भक्ति में लीन रहने के वर दिए।

राम, सीता और लक्ष्मण आगे बढ़े तो लोगों ने उन्हें राक्षसों के उत्पातों के बारे में बताया। जगह-जगह इंसानी हड्डियों के ढेर दिखाई दिए। वह राक्षसों द्वारा ऋषि-मुनियों को खा जाने के कारण था। राम ने प्रतिज्ञा की कि वे सभी राक्षसों का वध करके धरती को राक्षस विहीन कर देंगे।  आगे बढ़े तो दंडक वन में जटायु से भेंट हुई। फिर राम ने पंचवटी में अपना निवास बनाया।

पंचवटी में एक अवसर पाकर  लक्ष्मण ने एक भक्त की तरह प्रभु श्रीराम से  ईश्वर और जीव तथा भक्ति के बारे में पूछा। श्रीराम ने उन्हें इसके बारे में विस्तार से जानकारी दी। उनका कहना था कि आम आदमी लिए भक्ति का सबसे आसान रास्ता यह है कि वह ब्राह्मणों के चरणों में अनुराग रखते हुए वेदों में बताए गई वर्णाश्रम व्यवस्था के अंतर्गत अपना कर्म करता रहे।

एक दिन राम की बहन शूर्पणखा ने राम से प्रणय निवेदन किया तो उन्होंने यह कहते हुए लक्ष्मण के पास भेज दिया कि उनके पास तो उनकी पत्नी है। यदि लक्ष्मण चाहें तो उनसे बात कर लें। लक्ष्मण ने यह कहते हुए रामजी के पास भेज दिया कि वह तो सेवक है, स्वामी को ही विवाह करने का अधिकार है।  शूर्पणखा फिर राम के पास गई। राम ने फिर उसे मना कर लक्ष्मण के पास भेजना चाहा। इस पर वह क्रुद्ध हो गई। वह राक्षसी का रूप बनाकर सीता की ओर छपटी। सीताजी डरीं तो राम का इशारा पाकर लक्ष्मण ने उसके नाक-कान काट लिए।

 बदला लेने के लिए शूर्पणखा खर-दूषण को उनकी सेना के साथ ले आई। उसकी बहुत बड़ी सेना थी। एक से एक बड़े योद्धा थे। उनके  दल की धूल उड़ती देख, राम ने लक्ष्मण को सीता को लेकर गुफा में भेज दिया। उन्होंने खर, दूषण और तीसरे भाई त्रिशरा तथा उसकी सेना से अकेले ही मुकाबला किया। एक बार को देवता सहमे कहीं राम हार नहीं जाएं लेकिन राम ने माया के बल से उसके सेनिकों को आपस में लड़ा दिया। वह एक दूसरे को राम समझकर लड़ने लगे। लड़ाई में राम ने सेना सहित खर-दूषण को मार दिया।

फिर वह शिकायत लेकर रावण के पास गई। बहन की यह दशा देखकर रावण बदला लेने के लिए मारीच के पास गया तो मारीच ने राम और लक्ष्मण के बल की तारीफ करते हुए उनसे बैर नहीं लेने की सलाह दी।  लेकिन जब यह लगा कि रावण की नहीं मानने पर भी खैर नहीं है। वह रावण का साथ देने के लिए तैयार हुआ। रावण ने उसे स्वर्ण मृग बनाकर रामजी के पास भेजा। उसकी सुंदरता से प्रभावित  होकर सीताजी ने स्वर्ण मृग की छाल की इच्छा जाहिर की।  राम सीता की रक्षा के लिए लक्ष्मण को छोड़कर स्वर्ण मृग का शिकार करने के लिए चले गए।  जब राम ने निशाना साध कर बाण मारा तो स्वर्ण मृग जोर की आवाज कर गिर पड़ा। पहले उसने लक्ष्मन का नाम लिया फिर राम का।  उसने प्राण त्यागते हुए राक्षस का रूप धारण कर लिया। राम ने उसे भी अपने लोक पहुंचाया। इस दौरान सीताजी ने -‘‘हा लक्ष्मण’’ का क्रंदन सुना।   सीताजी सहम गईं, उन्हें लगा राम मुश्किल में हैं। उन्होंने लक्ष्मण से कहा कि वे भाई की मदद करने के लिए जाएं। उन्होंने इस मौके पर कुछ तीक्ष्ण वचन भी कहे जिन्हें सुनकर लक्ष्मण फौरन तैयार हुए। उन्होंने सीताजी की रक्षा के लिए उनके चारों ओर एक रेखा खींचते हुए  कहा कि वे इससे बाहर नहीं निकलें।  इसके अलावा उन्हें वन और दिशाओं के देवता के हवाले कर धनुष बाण लेकर चल दिए-

मरम बचन जब सीता बोला । हरि प्रेरित लक्षिमन मन डोला।।

वन दिसि देव सौंपि सब काहू। चले जहां रावन ससि राहू।।

रावण भिक्षुक के रूप में आया। उसने सीता को प्रभावित करने के लिए राजनीति और धर्म की अनेक बातें बताईं। जब सीताजी पर उसका कोई असर नहीं हुआ तो उसने अपना नाम बताते हुए रावण का  असली रूप रख उनका अपहरण कर लिया। वह रथ में बैठाकर सीताजी को  तेजी से ले जाने लगा। सीता ने बहुतेरे हाथपैर पटके। चिल्लाई, लेकिन वहां उनकी आवाज सुनने वाला कौन थासीताजी विलाप करती जा रही थीं, जोरजोर से मदद के लिए चिल्ला रही थीं। जटायु ने उनकी आवाज सुनी तो उसने रावण को रोका। पूरी सामर्थ्य से रावण का मुकाबला किया। लेकिन रावण ने तलवारों के बार से जटायु को अधमरा कर दिया। सीताजी ने आकाशमार्ग से जाते हुए एक पर्वत पर बंदरों को देखा तो प्रभु श्रीराम का नाम लेते हुए अपना एक वस्त्र गिरा दिया, जिसे बंदर ने ले लिया।

राम गोदावरी के किनारे स्थित अपने आश्रम की ओर जब वापस आ रहे तो उन्होंने लक्ष्मण को अपनी ओर आते देखा। उन्होंने तभी लक्ष्मण को टोका, यह तुमने क्या कियायहां राक्षस घूमते रहते हैं, सीताजी अब शायद नही मिलें। वह कुटिया में गए तो वहां सीताजी वास्तव में नहीं थी।  वह बहुत दुखी  हुए। पछताने लगे, साधारण मनुष्य की तरह विलाप करने लगे। पक्षु पक्षियों, पेड़ पौधों से सीता के बारे में पूछने लगे।  खोजबीन के दौरान उनकी मुलाकात जटायु से हुई। उसने ही उन्हें सीताजी को अपहरण कर दक्षिण दिशा में ले जाने की जानकारी दी। इसके बाद उसने अपने प्राण त्याग दिए। राम ने जटायु का अंतिम संस्कार किया। उससे यह भी कहा कि  वह स्वर्ग में पिताजी को सीताजी के अपहरण के बारे में नहीं बताएं। आगे बढ़े तो रास्ते में दुर्वासा के श्राप से राक्षस बने गंर्धव कबंध का वध करके उसका उद्धार किया। फिर शबरी के आश्रम में जाकर जाति-पांत छुआछूत को भुलाकर प्रेम के वशीभूत होकर उसके झूठे बेर खाए। उसे नबधा भक्ति के उपदेश दिए।

वह सीताजी के वियोग में परेशान थे, उनकी यह हालत देखकर नारदजी  पास आए। उन्हें धैर्य बंधाया। प्रभु राम ने उन्हें उपदेश देते हुए संतों के लक्षण बताए। उन्होंने कहा कि जो लोग काम, क्रोध, मोह, लोभ, मद और मत्सर छह विकारों को जीते हुए भी कामना रहित, पाप रहित, निश्चल (स्थिर बुद्धि) रहते हैं, वे ही सच्चे संत हैं।

 

 

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