राम कथा पार्ट-1

 



बालकांड

विष्णु भगवान अत्याचारियों का नाश करते रहते हैं। इसके लिए उन्होंने अनेक रूप रखे। एक बार श्री हरि के जय और विजय नाम के दो द्वारपाल थे। ब्राह्मण सनकादि  के श्राप से वे हिरण्यकशिपु और हिरणाक्ष्य के रूप में राक्षस बने। बहुत ही ताकतवर थे। जब ये उत्पात करने लगे तो भगवान विष्णु ने एक हिरणाक्ष्य को बराह का रूप रखकर मारा तो दूसरे हिरण्यकशिपु को नरसिंह रूप रख कर। ब्राह्मण का शाप तीन जन्मों तक रहता है। इसलिए ये दोनों आगे चलकर बलवान राक्षस रावण और कुंभकरण के रूप में जन्मे।  एक बार देवताओं और जलंधर असुर के बीच  युद्ध हुआ, जिसमें असुरों  से हार जाने पर शिवजी ने भी जलंधर से युद्ध लड़ा लेकिन वह पराजित नहीं हुआ। कारण यह था कि उसे अपनी पतिव्रता पत्नी की ताकत मिल जाती थी। तब भगवान विष्णु ने छलकर पहले जलंधर की पत्नी का पतिव्रत भंगकर उसकी ताकत को कमजोर किया, फिर जलंधर को मारा। जलंधर की पत्नी ने विष्णु को शाप दिया था कि उन्हें भी पत्नी बिछोह सहना पड़ेगा। जिसके कारण उन्होंने राम के रूप में मानव जन्म लिया। जलंधर ने रावण के रूप में जन्म लिया। 

भगवान विष्णु को राम के रूप में जन्म नारदजी के श्राप के कारण भी लेना पड़ा। नारदजी को दक्ष प्रजापति  का श्राप था कि वह कहीं स्थिर होकर टिक नहीं सकते। इस बार अच्छा वातावरण मिलने पर हिमालय पर्वत पर एक सुंदर आश्रम देख ध्यान लगाकर तप करने लगे तो इंद्र को लगा कि नारदजी उन्हें अपदस्थ कर राज्य हड़पना चाहते हैं। उन्होंने तपस्या भंग करने के लिए कामदेव को भेजा। उसने अनेक प्रकार से नारदजी में काम शक्ति जगाने की कोशिश की लेकिन विफल हुआ। इंद्र इससे नाराज हुआ लेकिन नारदजी का अभिमान बढ़ गया। नारद जी शिवजी को बताने गए कि कामदेव भी उनके सामने टिक नहीं सका। शिवजी समझ गए कि नारद अभिमान में आ गए हैं। उन्होंने उन्हें सलाह दी कि वे यह बात किसी से नहीं कहें खासतौर से भगवान विष्णु से भूलकर भी नहीं। वह जानते थे भगवान विष्णु  उनका अभिमान उतार देंगे। लेकिन नारदजी नहीं माने और भगवान विष्णु को भी यह बताने चले गए।  भगवान विष्णु को लगा कि उनके भक्त को अभिमान हो गया है, जिसे तोड़ना चाहिए। इसके लिए उन्होंने माया से एक नगर की रचना की।  उसमें शीलनिधि राजा की पुत्री विश्वमोहिनी के स्वयंवर का आयोजन कराया। भगवान विष्णु की माया निराली थी, नारदजी का भी मन ललचा गया।  वह विश्व मोहिनी से विवाह रचाने के लिए सुंदर रूप लेने  विष्णुजी के पास आए। उन्होंने उसे बंदर का रूप दे दिया। स्वयंवर में जब खुश होकर उम्मीद के साथ नारदजी पहुंचे तो वह हंसी का पात्र बने। शिवजी के दो गण जो ब्राह्मण रूप रखकर स्वयंवर में आए । उन्होंने  नारद का खूब उपहास किया। जब विश्वमोहिनी उनकी उपेक्षा कर चली गईं तो गणों ने उन्हें बताया कि पहले अपना रूप तो देख लो। पानी में अपना रूप देखा तो उन्हें बहुत ही नागबार गुजरा। भगवान विष्णु राजा का रूप धारण कर मोहिनी को ब्याह ले गए। नारदजी ने नाराज होकर विष्णु को श्राप दे दिया, जिस तरह वह स्त्री के लिए  परेशान हैं, वह भी इसी तरह परेशान होंगे। उन्होंने शिवजी के गणों को भी राक्षस होने का श्राप दिया। हालांकि बाद में विष्णु द्वारा माया का आवरण हटने पर वे पछताए और विष्णु को दिए श्राप के फलीभूत नहीं होने के लिए भी कहा लेकिन भगवान विष्णु ने उसे सहर्ष स्वीकार कर लिया।  इस कारण उन्होंने राम के रूप में मनुष्य जन्म लिया।

भगवान विष्णु के माता-पिता एक बार कश्यप और अदिति बने, जिन्होंने बाद में दशरथ और कौशल्या के रूप में जन्म लिया। एक पूर्व जन्म वे मनु और शतरूपा थे। वृद्ध होने पर बेटे उत्तानपाद को राजगद्दी सौंप वन में जाकर तपस्या करने लगे। उन्होंने एक हजार  साल तक बिना हवा के तपस्या की। सालों तक एक पैर पर खड़े रहे। भगवान विष्णु प्रसन्न होकर इनके पास आए और वर मांगने के लिए कहा तो उन्होंने उन जैसे पुत्र की कामना की। इस कारण भी उन्होंने दशरथ और कौशल्या के  पुत्र के रूप में जन्म लिया।

इसी प्रकार एक और कथा है। कैकय देश में  सत्यकेतु नाम के एक राजा हुए। राज्य के उत्तराधिकारी उनके बड़े बेटे का नाम प्रतापभानु और छोटे का अरिमर्दन था। प्रतापभानु ने अपने शौर्य से सभी राजाओं को पराजित कर पूरी पृथ्वी पर कब्जा कर लिया।  एक बार वह शिकार के लिए निकला तो कालकेतु के रूप में मायावी सूअर ने उसे भटका दिया।  घने जंगल के बीच बने एक आश्रम में उसने शरण ली। आश्रम में उससे पराजित एक राजा पुजारी के रूप में शरण लिए था। प्रतापभानु उसे पहचान नहीं सका लेकिन उस राजा ने उसे पहचान और अच्छा मौका जान उसकी मति को भ्रमित किया।  उसने और ताकतवर बनाने का लालच जगाकर प्रतापभानु से उसके राजमहल में ब्राह्मणों के लिए भोजन की व्यवस्था कराई। ब्राह्मणों के भोजन में पशुओं और ब्राह्मणों का मांस भी पका दिया। जब आकाशवाणी से ब्राह्मणों को इसकी जानकारी हुई तो उन्होंने प्रतापभानु को परिवार समेत राक्षस बन जाने का श्राप दिया। इस श्राप के कारण प्रतापभानु ने रावण के रूप में, अरिमर्दन ने कुंभकरण के रूप में और उसके मंत्री धर्मरुचि ने विभीषण के रूप में जन्म लिया। हालांकि इस कृत्य में उनकी गलती नहीं थी, इस कारण वे पवित्र पुलत्स्य ऋषि के कुल में जन्मे। तीनों ने भारी तपस्या की। इस पर ब्रह्माजी ने उन्हें वानर और मनुष्य के अलावा कोई मार नहीं सके, यह इच्छित वर दिया। रावण महाबली था। एक बार उसने कैलाश पर्वत को उठा लिया। उसने देवताओं को पराजित कर उनके किले पर कब्जा कर लिया। देवताओं को सुमेरु पर्वत की  गुफाओं में शरण लेनी पड़ी। कुबेर पर हमला कर उससे पुष्पक विमान ले लिया। सूर्य, चंद्रमा, यम आदि उसकी सेवा में रहने लगे।  भाई कुंभकरण के मुकाबले का पूरी धरती पर कोई  योद्धा नहीं था। वह मदिरा पीकर छह महीने तक सोता रहता। जागने पर वह इतना भोजन करता यदि वह रोजाना खाता तो सृष्टि में जल्द ही सारी चीजें खत्म हो जातीं।

 दोनों भाइयों के अत्याचारों से  दुखी होकर पहले अन्य देवी देवताओं को लेकर पृथ्वी गाय के रूप में ब्रह्मा जी के पास गई।  उन्होंने अपने को असहाय बताते हुए श्री हरि की  शरण में जाने के लिए कहा। समस्या थी श्री हरि कहां मिलेंगे? तब शंकरजी की सलाह पर उन्होंने अपनी-अपनी जगह पर खड़े होकर श्री हरि से अत्याचारों से मुक्ति के लिए प्रार्थना की। तब आकाणवाणी हुई, चिंता नहीं करें, जल्द ही भगवान विष्णु धरती पर मनुज रूप में जन्म लेंगे।  इस प्रकार भी भगवान विष्णु ने राम के रूप में जन्म लिया।

इस प्रकार  भगवान विष्णु के जन्म लेने की अनेका अनेक कथाएं हैं। तुलसीदासजी ने लिखा है-

‘‘हरि अनंत हरि कथा अनंता। कहहिं, सुनहिं बहुबिधि सब संता।।

रामचंद्र के चरित सुहाए। कलप कोटि लगि जाहिं न गाए।।’’

इस प्रकार त्रेता युग में अयोध्या के रघुवंश कुल में दशरथ नाम के एक राजा हुए। वह बहुत ही प्रतापी शूरवीर थे। उनके तीन रानियां थीं। अधेड़ अवस्था पार करने पर भी जब कोई संतान नहीं हुई तो उन्हें चिंता हुई। वह गुरु वशिष्ठ के आश्रम में गए और अपनी पीड़ा बताई। महर्षि ने श्रंगी ऋषि के माध्यम से संतान प्राप्ति हेतु यज्ञ कराई और बाद में प्रसाद के रूप में खीर दी। उसे खाने के बाद रानी कौशल्या ने राम को जन्मा। कैकई ने भरत को, सुमित्रा ने लक्ष्मण और शत्रुघ्न दो पुत्रों को जन्म दिया। दशरथ को ब्रह्मानंद की अनुभूति हुई, सारे लोकों में खुशी की लहर दौड़ गई। नगर में घर-घर मंगलमय बधावन बजने लगीं। आसमान से पुष्पों की वर्षा हुई। सभी देवी देवता  भगवान राम की स्तुति करने लगे। सूरज एक महीने के लिए वहीं रुक गया। महीने भर इस कारण रात ही नहीं हुई लेकिन कोई इसे जान नहीं सका-

‘‘मास दिवस कर दिवस भा मरमन जाने कोइ।

रथ समेत  रवि थाकेउ  निसा कवन विधि होइ।।’’

चारों राजकुमारों को कुछ बड़े होने पर गुरु वशिष्ठ के आश्रम में शिक्षा-दीक्षा दी गई। वह पढ़ने में बहुत तेज थे। उन दिनों राक्षसों का बड़ा प्रकोप था। राक्षस ऋषियों और आम जनता को परेशान करते थे। उनके यज्ञों में व्यवधान डालने के अलावा उन्हें मार डालते थे। इस पर ऋषि विश्वामित्र राजा दशरथ के दरबार में आए। उन्होंने राक्षसों से रक्षा के लिए राम और लक्ष्मण दोनों राजकुमारों को मांगा। दशरथ दुविधा में थे। बड़ी मुश्किल से इस उम्र में उन्हें संतान मिली, वे उन्हें अपने से कैसे अलग करें। उन्होंने राजकुमारों के बालपन का वास्ता देकर टालने का प्रयास किया। उनका कहना था कि इतने छोटे राजकुमार दुर्दांत राक्षसों से कैसे मुकाबला कर पाएंगे? उन्होंने राजकुमारों के बदले सैनिक सहायता का भी आग्रह किया लेकिन विश्वामित्र दोनों राजकुमारों को ले जाने पर ही अड़े रहे। महर्षि ने विश्वास दिलाया कि ये राजकुमार साधारण इंसान नहीं हैं।  ये राक्षसों से मुकाबला करने के लिए पूरी तरह सक्षम हैं। वह इनकी क्षमता और योग्यता को जानते हैं।  गुरू वशिष्ठ ने भी विश्वामित्र के साथ राम और लक्ष्मण को भेज देने के लिए कहा। फिर वह मना नहीं कर सके।

विश्वामित्र राम और लक्ष्मण को लेकर वन में गए। उन्होंने अनेक यज्ञ किए। इस दौरान राम और लक्ष्मण ने महर्षि की खूब सेवा की। न केवल राक्षसों से उनकी रक्षा की बल्कि  अनेक उन महाबली राक्षसों को मार डाला, जिनका बहुत दूर-दूर तक आतंक था।  ताड़कावन में ताड़का नाम की राक्षसी का बहुत ही आतंक था। हजार हाथियों की ताकत रखने वाली ताड़का ने मलद और कामरूप जनपद उजाड़ डाले थे। विश्वामित्र ने उसे मारने का आदेश दिया तो उसने रौद्र रूप रख दोनों राजकुमारों को भयभीत करने का प्रयास किया।  वह अपनी माया से पत्थरों की वर्षा करने लगी। लेकिन राम ने उसका वध कर दिया और उसके पुत्र राक्षस मारीच को बिना फल वाले बाण के माध्यम से समुद्र पार फैंक दिया। राजकुमारों की ख्याति दूर-दूर तक फैल गई। इसके बाद उन्होंने सुबाहू नाम के राक्षस का अंत किया। जनकपुरी में धनुष यज्ञ की सूचना मिलने पर वे उस ओर चल दिए।

 रास्ते में उन्हें एक ऐसा आश्रम मिला जिसमें महिला की पत्थर की मूर्ति के अलावा कुछ नहीं था। ऋषिवर ने उन्हें समझाया कि हजारों साल पहले वह ऋषि गौतम की पत्नी हुआ करती थी। नाम था- अहिल्या। वह ब्रह्मा की मानस पुत्री थी। उसकी शादी गौतम ऋषि से की गई। एक दिन छल करके इंद्र गौतम ऋषि की अनुपस्थिति में अहिल्या के पास आया और प्रणय निवेदन करने लगा। अहिल्या ने उसे पहचान कर दुत्कार दिया। जब इंद्र उनके आश्रम से बाहर निकल रहा था तभी गौतम ऋषि आ गए। उन्होंने शक होने पर अपनी पत्नी अहिल्या को पत्थर की बन जाने का श्राप दे दिया। बाद में जब उन्हें अपनी भूल का अहसास हुआ तो उन्होंने कहा कि त्रेतायुग में राम के चरण रज के स्पर्श से यह पुन: स्त्री बन जाएगी। विश्वामित्र के कहने पर श्रीराम ने अहिल्या की मूर्ति को स्पर्श कर पुनजीर्वित कर दिया। वह प्रभु श्रीराम के चरणों में लिपट गई। उसने प्रभु के चरणों में रह कर अविचल भक्ति का वर मांग लिया। फिर वह पतिलोक चली गई। 

इसके बाद वे गंगा नदी पर गए, स्नान किया। विश्वामित्र जी ने उन्हें देवनदी गंगाजी के पृथ्वी पर उतरने की कथा सुनाई। रास्ते में जनकपुर की शोभा  देखकर ऋषियों के समूह के साथ उसी ओर चले गए।  नगर में उनके साथ ठहर भी गए। लेकिन जैसे ही दशरथजी को इसके बारे में पता चला कि विश्वामित्रजी आए हैं तो वे अपने सुयोग्य मंत्री और योद्धाओं के साथ उनके स्वागत के लिए पहुंचे।  विश्वामित्रजी ने राजा को बैठाकर कुशलक्षेप पूछी और बहुत सी बातें कीं। इस बीच दोनों राजकुमार मिथिला नरेश के उपवन में फुलवारी देखने के बाद लौटे। दोनों भाइयों  के रूप को देखकर जनक इतने आनंदित हुए कि अपनी सुधि-बुधि खो बैठे। उनका शरीर रोमांचित हो उठा। उन्होंने पूछा भी कि ऋषिवर  ये दोनों मुनिकुल के हैं या किसी राजकुल के? उन्होंने बताया कि ये रघुकुल के महाराज दशरथ के पुत्र हैं। मिथिला नरेश ने उन्हें  बहुत ही  शानदार महल में ठहराया।

लक्ष्मणजी के मन में नगर देखने की इच्छा जाग्रत हुई तो राम ने गुरू से  आज्ञा लेकर नगर का भ्रमण किया। नगरवासी भी इनके रूप को निहार मोहित होने लगे। सखियां उन्हें देख-देख-देख कर आपस में उनके गुणों के बारे में चर्चा करने लगीं। रामचंद्रजी को देखकर एक सखी कहने लगी, यह सीता के लिए उपयुक्त हैं। इसी दौरान सीताजी सखियों के साथ गौरा पूजन के लिए आईं तो दोनों राजकुमार भी संयोग से उपवन में फूल और पत्ती चुन रहे थे। यहां राम और सीता के  नयन एक दूसरे से मिले तो काफी देर तक एक दूसरे पर टकटकी लगाए रहे। पलकों ने गिरना बंद कर दिया। दोनों ओर हर्ष की अनुभूति हुई। श्रीराम ने भाई लक्ष्मण को बताया कि यह वहीं जनक कन्या है जिसके लिए धनुष यज्ञ हो रहा है, वह गौरापूजन के लिए आई हैं, यहां फुलवारी में प्रकाश करती फिर रही हैं।  इनकी अलौकिक सुंदरता देखकर उनका मन क्षुब्ध हो रहा है। विधाता ही जानता है, ऐसा क्यों है। उनके दाहिने अंग फड़क रहे हैं। रघुवंशी कभी भी  कुमार्ग पर पैर नहीं रखते हैं। उन्होंने तो सपने में भी किसी पराई स्त्री पर दृष्टि नहीं डाली।

अगले दिन स्वयंवर में राम और लक्ष्मण गुरुवर के साथ आए तो कुछ लोग मन ही मन विचार करने लगे कि श्याम वर्ण के राजकुमार ही धनुष को तोड़ पाएंगे।  सीताजी वरमाला लेकर सखियों के साथ पधारीं। राम और सीता की आखें यहां फिर एक दूसरे से मिलीं तो दोनों सकुचाए।  इस बीच भाटों ने घोषणा की यहां शिवजी का जो पुराना धनुष रखा हुआ है, यह बहुत भारी है। रावण  और बाणासुर जैसे महायोद्धा भी इसे हिला नहीं सके। जो कोई इस धनुष को तोड़ेगा, सीताजी उसी को वरमाला पहनाएंगी। स्वयंवर में दूर-दूर से राजा और  राजकुमार आए। सभी ने जोर आजमाइश की। कई उसे उठना तो दूर डिगा भी नहीं सके। फिर दस हजार राजा एक साथ मिलकर धनुष को उठाने लगे लेकिन कामयाब नहीं हो सके। 

जब कोई शिवजी के धनुष को तोड़ नहीं सका तो राजा जनक को चिंता हुई।   क्या उनकी बेटी क्वारी रह जाएगी? वह अपने प्रण पर पछताने लगे, उन्होंने क्यों धनुष यज्ञ किया? तब गुरु विश्वामित्र के आदेश पर राम धनुष की ओर बढ़े। उन्होंने सारे लोगों पर निगाह डाली, सीताजी को भी निहारा, वह परेशान थीं। सीताजी मन ही मन मां भवानी से राम के  हाथों धनुष टूटने की प्रार्थना कर रहीं थी और उलाहना दे रहीं थी कि वह इसी दिन के लिए उनकी आराधना करती रही हैं।  तब भगवान राम ने  शिवजी के धनुष को बहुत फुर्ती से झटके के साथ उठाया और तोड़ दिया। यह कार्य उन्होंने इतनी फुर्ती से किया कि बहुतों को धनुष उठाने और तोड़ने में केवल बिजली की सी चमक दिखी। इसके अलावा कुछ देख ही नहीं पाए। धनुष टूटने के दौरान बहुत जोर की आवाज हुई। धरती हिलने लगी।  चारों  ओर खुशी छा गई।  देवता स्तुतिगान के साथ पुष्प वर्षा करने लगे। राम की जय-जयकार होने लगी। दूसरे राजा लोग  दंग रह गए। सीताजी ने रामजी को वरमाला पहनाई। वह उनके चरणस्पर्श करना चाहती थी लेकिन अहिल्या की कथा का स्मरण आने पर पीछे हट गई।

धनुष टूटने की आवाज सुनकर ऋषि परशुराम भी वहां दौड़े-दौड़े आए। वह इस बात पर बहुत नाराज हुए कि शिवजी का यह धनुष तोड़ा क्यों गया? यह महा पाप है। उन्होंने धनुष तोड़ने वाले के लिए काफी उल्टा-सीधा कहा। छोटे भाई लक्ष्मण से रहा नहीं गया। उनकी परशुरामजी से तकरार हो गई। बाद में राम ने लक्ष्मण को डांटकर शांत किया और अपनी ओर से बहुत ही विनम्रता से सफाई दी कि धनुष इतना जर्जर था कि वह उठाते ही टूट गया। इसमें उनकी कोई गलती नहीं है। उन्होंने यह भी कहा कि स्वयंवर में इस तरह की शर्त ही नहीं रखी जानी चाहिए थी। यदि यह नहीं टूटता तो सीताजी का विवाह ही नहीं हो पाता जो गलत होता।  उन्होंने परशुराम जी को समझाया कि वह तो महाज्ञानी और संत हैं, उन्हें ऐसी बातों में नहीं फंसना चाहिए। फिर भी घनुष के टूटने से उनके सम्मान को यदि ठेस लगी है तो वह उसके लिए क्षमाप्रार्थी हैं। क्रोधित परशुराम श्रीराम की बातों से न केवल शांत हुए बल्कि अपने क्रोध पर लज्जित भी होने लगे। वह राम से अनुमति लेकर तपस्या के लिए वन में चले गए।

इसके बाद आमंत्रण पाकर राजा दशरथ गुरु वशिष्ठ अपने पुत्रों के साथ बारात लेकर आए। उसमें तमाम, हाथी, घोड़े, रथ और पैदल थे। मिथिला को बहुत ही सुंदर तरीके से सजाया गया।  बहुत ही धूमधाम से शादी हुई। देवसुंदरियों ने गीत गाए तो देवताओं ने नगाड़े बजाए।  भगवान राम जिस घोड़े पर सवार हुए वह देखने में इतना सुंदर था कि मानो कामदेव खुद घोड़े के रूप में आ गए हों। इंद्राणी, सरस्वती, पार्वती आदि देवियां चतुराई से सुंदर स्त्रियों का रूप रख रनिवास में आ गईं ।  ब्रह्मा आदि देवता ब्राह्मण के रूप में विवाह देखने लगे।  सूर्य भी एक टक होकर निहारने लगा। इस अलौकिक दिव्य वातावरण में  राजा जनक ने अपनी चारों पुत्रियों की शादी दशरथ के पुत्रों से की। सीता की शादी राम के साथ, मांडवी की भरत के साथउर्मिला की लक्ष्मण के साथ और श्रुतिकीर्ति की शत्रुघ्न के साथ शादी हुई। खूब दान दहेज दिया गया।

 

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