राम कथा पार्ट-2 अयोध्याकांड
शादी
के बाद जब राज परिवार में हंसीखुशी का माहौल था, दशरथ बूढ़े हो चले थे, एक दिन गुरू वशिष्ठ ने राजा
को राम का राज्याभिषेक करने की सलाह दी तो उन्होंने मंत्रियों को बुलाकर तुरंत
तैयारियों के लिए आदेश कर दिए। राज्याभिषेक की तैयारियां की जाने लगीं। नगर को
सजाया जाने लगा। राम और सीता के शुभ अंग फड़कने लगे तो दोनों ने एक दूसरे से कहा, लगता है कि भरत आ रहे हैं, इसलिए ऐसा हो रहा है।
लेकिन देवता गण विचलित होने लगे। आपस में चर्चा करने लगे, किसी तरह राम राजगद्दी
नहीं संभालें। नहीं तो सब गड़बड़ हो जाएगा। उन्हें राज्य से निकाल
दिया जाए,
तभी
सही
रहेगा। सभी देवताओं ने मिलकर सरस्वती से प्रार्थना की कि आप ही कोई
उपाय करिए। तब सरस्वती ने अयोध्या नगरी में जाकर कैकई
की दासी मंथरा की मति फेर दी। मंथरा दौड़ी-दौड़ी उदास होकर रानी कैकई के पास
गई। उसे समझाया कि राज्य तो राम का हो जाएगा, कौशल्या राजमाता बन जाएगी। तुझे और तेरे बेटे को क्या
मिलेगा?
उसने
तमाम सौतों की कहानियां बताकर कहा कि तेरे को नौकरानी बनकर रहना होगा और भरत
को जेल में डाल दिया जाएगा। लक्ष्मण भाई
के साथ सेवक के रूप में कार्य करेगा। कैकई ने पहले तो मंथरा को झिड़क दिया। उसे
यहां तक कहा कि वह उसकी जीभ नौंच लेगी। क्या बात करती है, राम भी तो अपने ही हैं। वह
मुझे भी कौशल्या की तरह सम्मान देते हैं। लेकिन जब उसने बार-बार कैकई के दिमाग में
यह भरी कि कौशल्या दिखती जरूर भोलीभाली है, वास्तव में बहुत चतुर है। उसने
राजा को अपने वश में कर लिया है। इसीलिए राजगद्दी देने
हेतु ऐसा समय चुना है जबकि भरत ननिहाल में
है। जाते-जाते वह वह यह भी कह गई कि राजा पर सहज विश्वास मत कर लेना।
पहले सौगंध ले लेना, तभी अपने दोनों वर मांगना। कैकई
की बुद्धि फिर गई। उसके भीतर स्वार्थलिप्सा जाग गई। वह गुस्सा होकर कोप भवन में
चली गई।
सायं
को जब राजा दशरथ को इसके बारे में पता चला तो वह उन्हें मनाने गए। उन्होंने पूछा
कि इस खुशी के मौके पर क्यों नाराज हो, बताइए क्या चाहिए आपको? कैकई ने मुस्कराकर कहा कि
वैसे ही कहते रहते हो,
दिया
तो एक बार भी नहीं है। राजा ने जब कहा कि कैसी बात करती हो, दो नहीं चार वर मांग लो।
यह रघुकुल की रीति है,
भले
ही प्राण चले जाएं,
लेकिन
वचन से नहीं फिर सकते।
पूर्व में एक बार राजा दशरथ जब किसी भारी मुसीबत में फंसे थे तब
कैकर्ई ने उन्हें उस मुश्किल से निकाला था। तब खुश होकर राजा दशरथ ने उन्हें वचन
दिया था कि वह उनसे कभी भी दो वर मांग सकती है। यानि कोई भी दो कार्य अपनी इच्छा
के करा सकती है। रानी ने तब कहा था कि वे समय आने पर अपनी मांगें रखेंगी। रानी ने
उन्हीं वरों का हवाला देकर दो वर मांगे। एक भरत का राज्याभिषेक और दूसरे राम को 14 साल का वनोवास। यह सुनकर
दशरथ के पैरों तले की जमीन खिसक गई। उन्होंने सपने में भी नहीं सोचा था कि ऐसा
करना पड़ेगा। प्राणों से प्यारे राम को उन्हें सिंहासन की जगह वनोवास भेजने का आदेश
देना पड़ेगा। लेकिन वह वचनबद्ध थे। वहीं पर बेसुध से गिर
पड़े। सोचने लगे,
स्त्रियों
के चरित्र का पता तो विधाता भी नहीं लगा सकता। रात भर वह सो नहीं सके।
सुबह
होने पर उन्होंने सुमंत्र के माध्यम से राम को बुलवाया। राम उनकी हालत देखकर
परेशान हो उठे। उन्होंने माता कैकई से इसके बारे में पूछा तो उसने तपाक से दो वर
मांगे जाने की बात कह दी। राम ने तुरंत कहा कि उनके लिए इससे बढ़कर
सौभाग्य की बात क्या होगी। उनके प्रिय भाई भरत को राजगद्दी मिलेगी । उन्हें पिता
का आदेश पालन करने और वन में संतों से संपर्क करने का अच्छा अवसर मिलेगा। राम वन
जाने के लिए अनुमति लेने को माता कौशल्या , सुमित्रा से भी मिले। फिर सीता के पास गए।
सीता भी पति के साथ वन जाने को तैयार हो गईं। उन्हें सभी ने समझाया कि जंगल में
परेशानी होगी। 14 साल की ही बात है। कभी अयोध्या
में तो कभी जनकपुरी में रहकर जहां चाहे समय काट लेना। लेकिन
सीता टस से मस नहीं हुई। उसने कहा कि जहां राम हैं, वहीं अयोध्या है। वह अब
उनके बिना एक पल नहीं रह सकतीं। उनके रहते उसे न
कोई खतरा है और कोई असुविधा। वे जैसे रहेंगे, वैसे वह ही रह लेगी। उनकी सेवा करती
रहेगी।
इस बीच लक्ष्मण भी आ गए। वह भी राम के साथ सेवा के लिए जाने को अड़
गए। सुमित्रा ने पहले तो रोकने की कोशिश की फिर यह
कहते हुए अनुमति देदी कि राम की सेवा से बढ़कर उसका कहीं हित नहीं है।
वन
जाने से पहले राजसी वस्त्रों को त्यागकर तापसी वस्त्रों में राम, सीता और लक्ष्मण एक बार
फिर पिता दशरथजी के पास गए। राम को देखते ही उनके नेत्रों से अश्रु धारा बह निकले।
राम को गले से लगा लिया। मन ही मन कहने लगे कि राम के बिना ये प्राण उनके शरीर में
कैसे रहेंगे।
तीनों ने उनके चरण स्पर्श किए। दशरथ जी ने सुमंत्र को यह कहते हुए
उनके साथ भेजा कि चार दिन वन में घुमाकर वापस ले आना। साथ में उन्होंने यह भी कहा
कि हो सकता है कि राम नहीं मानें क्योंकि वह रघुकुल की
मर्यादा से बंधे हैं लेकिन सीता को अवश्य वापस ले आना।
यह सुकुमारी जंगल में कैसे रहेगी? सुमंत्र ने जंगल में रहकर खाने-पीने का एक
साल तक के लिए सामान रख लिया।
राम
के वनोवास की खबर सुनकर नगर में कोहराम मच गया। तरह-तरह की बातें होने
लगीं। लोग कहने लगे कि जब राम ही यहां नहीं रहेंगे तो वे यहां रहकर क्या करेंगे।
सुमंत्र के रथ पर बैठकर राम, लक्ष्मण और सीताजी जब वन
को जाने लगे लगे तो नगर के लोग भी उनके साथ हो लिए। कोई बैलगाड़ी में तो कोई रथ में
तो कोई पैदल ही अपने पशुओं को लेकर उनके साथ चल दिए। दिन
भर चलने के बाद एक स्थान पर उन्होंने रात्रि विश्राम किया। दिन निकलने से पहले राम
ने जगकर सुमंत्र से कहा कि रथ को चुपचाप तैयार करो और
उन्हें उस रास्ते से ले चलो जहां रथ के पहियों के निशान नहीं बनें। उन्होंने ऐसा
ही किया। सुबह जगने पर अयोध्यावासियों ने देखा कि राम, सीता लक्ष्मण में से कोई
नहीं है तो वे ठगे से रह गए। पछताने लगे यह क्या हो गया? वे सोए ही क्यों? उनके तो भाग्य फूट गए। राम, लक्ष्मण और सीता को लेकर
सुमंत्र श्रंगवेरपुर पहुंचे। कई दिन रुकने के बाद निषादराज गुह ने उन्हें गंगा पार
कराई। राम के पास निषादराज को देने के लिए कुछ नहीं था, राम की यह मुश्किल समझ
सीताजी निषादराज को अपनी अंगूठी देने लगीं तो निषाद ने यह कहते हुए उसे लेने से
इंकार कर दिया। वह उन्हें नदी पार करा रहे हैं,जब उनका अंत समय आए तो वह उन्हें भवसागर से
पार करा दें। हिसाब बराबर हो जाएगा। निषादराज राम की अलौकिकता को समझते थे। गंगा
नदी पारकर राम प्रयाग में भारद्वाज मुनि से उनके आश्रम में भेंट करने पहुंचे। उनसे
अनेक ज्ञान की बातें कीं। बाद में उन्होंने महर्षि वाल्मीकि के आश्रम में जाकर
उनसे सलाह मशविरा किया। राम ने पूछा कि अब वह कहां रहें, उनके लिए उपयुक्त जगह
बताएं। वाल्मीकि ने कहा-दुनिया में ऐसी कोई जगह ही नहीं हैं, जहां आप नहीं हैं। आप तो
कण-कण में हैं। आपको कौन क्या बता सकता है। बाद में उनकी सलाह पर
ही वह चित्रकूट में निवास करने गए। इस दौरान उन्होंने
गंगा और यमुना में स्नान किए। राम ने निषादराज को समझा-बुझाकर वापस किया। वह लौटे
तो श्रंगवेरपुर में सुमंत्र राम का इंतजार कर रहे थे। उन्हें
अकेले आते देख वह बहुत ही विकल हो गए। हा राम, हा राम कहने लगे। घोड़े
हिनहिना लगे। वे न कुछ खा रहे थे और नहीं पानी पी रहे थे। वे बार-बार उस ओर
देख रहे थे जिस ओर राम गए। वह बहुत ही दुखी मन
से अयोध्या में वापस लौटे तो रास्ते में लोगों से राम का नाम सुनते ही कान लगाकर
उसे सुनते और कुछ ठहर जाते। सुमंत्र की दिन में नगर में प्रवेश करने की हिम्मत
नहीं हुई। अंधेरा होने पर नगर में घुसे। क्योंकि हर कोई उनसे राम के बारे में
पूछता जबकि वह किसी को कोई जवाब देने की स्थिति में नहीं थे।
उन्होंने बेसुध से पड़े दशरथजी के होश आने पर क्षमा मांगी कि वह उनके आदेश
का पालन नहीं कर सके। उन्होंने बताया कि चित्रकूट में राम के पहुंचने से
बहुत ही सुखमय वातावरण हो गया है। पशु-पक्षी तक खुश हैं, शेर, भालू हाथी, हिरन सभी मेलजोल से रह रहे हैं। राम तो इस
बात से खुश हैं कि उन्हें पिता के आदेश का पालन करने का सुअवसर मिला है। लक्ष्मण
जरूर कुछ गुस्से में दिखाई दिए लेकिन राम ने उन्हें बरज दिया और मुझे बार-बार
सौंगंध दिलाकर
कहा कि यह बात भूलकर किसी से भी मत कहना।
कुछ
दिन बाद पुत्र के वियोग में दशरथ ने प्राण त्याग दिए। वशिष्ठ मुनि के कहने पर भरत
और शत्रुघ्न को उनकी ननिहाल से बुलवाया गया। वे जब अयोध्या में आए तो सब सूना-सूना
था। कोई भरत से बात नहीं करना चाहता था लेकिन कैकई फूली नहीं समा रही थी। वह
दौड़ी-दौड़ी
आरती सजाकर दोनों भाइयों को महल में लाई। वह इस तरह खुश थी जैसे
भीलनी जंगल में आग लगाकर आनंदित हो रही हो। उसने अपने
मायके की राजीखुशी पूछी तो भरत ने पिता, भाई राम, लक्ष्मण और सीता के बारे
में पूछा।
भरत
को जब राम,
सीता
और लक्ष्मण को वनोवास भेजे जाने और पिता के स्वर्गलोक जाने का पता चला तो विषाद के
मारे बेहाल हो गए। उन्होंने अपनी मां कैकई को इसके लिए काफी भला-बुरा कहा।
उन्होंने यहां तक कह दिया कि उसने जन्म के समय उसे मार क्यों नहीं डाला। यह भी कहा
कि उसके लिए राजगद्दी और राम के लिए वनोवास की मांग करते हुए उसकी जिभ्या जल क्यों
नहीं गई?
उन्होंने
राज्य सिंहासन स्वीकार करने से इंकार कर दिया। शत्रुघ्न तो इतने गुस्से में आए कि
मंथरा को एक लात मारी और फिर वह उसे बाल पकड़कर घसीटने लगे। भरत ने उसे छुड़ाया।
गुरू
वशिष्ठ की आज्ञा से उन्होंने पिता का अंतिम संस्कार किया। इसके बाद वह नगरवासियों
के साथ चित्रकूट में राम,
सीता
और लक्ष्मण को वापस लेने के लिए गए। वह अपने साथ सेना , हाथी घोड़े, रथों को भी यह कहते हुए ले
गए कि सभी चीजें श्रीरामजी की हैं। साथ में तिलक का सामान था। वह चाहते थे कि
श्रीराम का वहीं पर राजतिलक कर दिया जाए।
जैसे
ही भरतजी का दल श्रंगवेरपुर के निकट पहुंचा, निषादराज आशंकाग्रस्त हो गए कि कहीं भरत भाई
को मारकर निष्कंटक राज तो नहीं करना चाहता। वह मुकाबले के लिए
लोगों को तैयार करने लगा। पर एक बूढ़े की सलाह पर उसकी गलतफहमी दूर हो गई। भरत ने
रथ से उतरकर निषादराज को गले से लगाया। एक रात वहां रुककर गंगा में स्नान करने के
बाद वह यह कहते हुए पैदल ही आगे बढ़े कि श्री राम भी तो पैदल ही गए। रास्ते में
उन्होंने भारद्वाज मुनि से आशीर्वाद लिया और यमुना में भी स्नान किए। भरत के इस भ्रातृत्व
प्रेम को देखकर देवराज इंद्र चिंतित होने लगे, कहीं भरत सचमुच में राम को मनाकर
वापस नहीं ले आएं। इससे उनके कार्य नहीं हो पाएंगे। रास्ते
में लोग उन्हें लेकर तरह-तरह की बातें कर रहे थे। कुछ
ने कहा कि यह राम पर चढ़ाई करने जा रहे हैं तो कुछ ने कहा ऐसा नहीं है, वह तो राम को मनाने जा रहे
हैं,
तभी
तो नंगे सिर और नंगे पैर पैदल चल रहे हैं।
इधर
सीताजी ने रात में देखे अपने स्वप्न के बारे में बताया कि भरत उन्हें मनाने आ रहे
हैं। साथ में माताएं भी हैं। लक्ष्मण कहते हैं कि यह स्वप्न अच्छा नहीं है। तभी
रास्ते में धूल उड़ती और पक्षियों को उड़ते देख राम असमंजस में पड़ जाते हैं। किसी ने
बताया कि भरत चतुरंगिणी सेना लेकर आ रहे हैं तो लक्ष्मण ने आशंका जताई कि कहीं भरत
यहां भी हमला करने तो नहीं आ रहा है? वह तुरंत हमले का जवाब देने के लिए तैयार हो
गए। अपने धनुष बाण निकाल लिए। लेकिन आकाशवाणी ने जल्द ही उनका यह भ्रम दूर कर
दिया। ।
पास आकर भरत ने तीनों को अयोध्या वापस चलने और बड़े भाई राम से
राज्यभार संभालने के लिए काफी मिन्नतें की लेकिन राम
ने पिता के आदेश के पालन और रघकुल की रीति का वास्ता देकर उसे अस्वीकार कर दिया।
भरत ने यह भी कहा कि वह और शत्रुघ्न उनके बदले में वन
में रहने को तैयार हैं। आप अयोध्या चले जाइए, अयोध्या आपके बिना अनाथ है। फिर यह भी कहा कि
यदि ऐसा नहीं कर सकते तो मुझे लक्ष्मण की जगह अपने साथ रख लीजिए।
लक्ष्मण और सीताजी को वापस भेज दीजिए। इस मौके पर राजा जनक, उनकी पत्नी, कौशल्या आदि तीनों माताओं, वशिष्ठ, विश्वामित्र सभी ने प्रयास
किए।
सीताजी को सभी ने समझाया कि वनोवास उन्हें नहीं दिया गया है, फिर वह क्यों परेशानी झेल
रही हैं। कैकई को अपने कृत्य पर पछतावा था। लेकिन कोई टस से मस
नहीं हुआ। भरत राम और सीता के चरणों में सिर नवाकर राम के खड़ाऊ लेकर अयोध्या लौट
आए। शुभ मुहूर्त में राम के खड़ाऊं सिंहासन पर रखकर
अपने लिए जमीन खोद उस पर कुश बिछाकर संतों की वेशभूषा में रहने लगे। भरत ने
वहीं से राम के नाम से राज्य व्यवस्था संभाली।
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