किसान को मिले चार गुनी कीमत

                   
नरेंद्र दामोदरदास मोदी ने 2014 के लोकसभा चुनाव में अच्छे दिनों के वायदे के साथ किसानों को लागत का डेढ़ गुना लाभ देने का वायदा किया था। इसके बाद 2017 में उत्तर प्रदेश विधान सभा चुनाव के दौरान किसानों को यह लाभ दोगुना तक बढ़ाने का वायदा किया। देश के किसान इस बात के गवाह हंै कि उन्हें यह कोई लाभ दिया जाना तो दूर उल्टे उनकी लागत को और बढ़ा दिया गया । डीजल से लेकर बिजली की दरों, खेती में काम आने वाले उपकरणों, रसायनों, बीजों के दामों में भारी वृद्धि हुई। नतीजतन किसानों की हालत लगातार बद से बदतर हो रही है। किसान आत्महत्या कर रहे हैं, खेती छोड़ रहे हैं। यदि यही हालात बने रहे तो स्थिति और खराब हो सकती है, कानून अव्यवस्था की स्थिति भी पैदा हो सकती है। किसानों के बच्चे ही सीमा पर दुश्मन की गोलियों को सीने पर झेलते हैं, जब वे भूखे मरेंगे तो कुछ भी कर सकते हैं।
हमारा कृषि प्रधान देश है। यह हमें घुट्टी की तरह पढ़ाया जाता है। पहले 80 प्रतिशत लोग खेती पर निर्भर थे। अब घटकर निर्भरता करीब 70 प्रतिशत रह गई है।  यह आबादी देश की  करीब दो तिहाई है। थोड़े से वोट प्रतिशत के लिए सरकारों की नीतियां बदल जाती हैं लेकिन इतने बड़े समुदाय के लिए झांसे के अलावा क्या है? जबकि किसान केवल वोट बैंक नहीं है, इससे पूरे देश का पेट भरता है। यह देश की रीढ़  है। रुपये- पैसे, सोने-चांदी, कंप्यूटर, लोहा, सीमेंट, कोयला से पेट नहीं भर सकते। न मल्टीनेशनल कंपनियों के उत्पादों से काम चल सकता है। कोरोना के संकट ने भी यह साबित कर दिया कि पेट किसान के अनाज, सब्जी, दूध और दही से ही भरता है।
वैसे किसानों का शोषण नया नहीं, यह सदियों से होता आया है, शेरशाह सूरी और मुगलों के शासनकाल में किसानों से उनकी उपज का 25-30 प्रतिशत तक लगान लिया जाता था। हिंदू सम्राट मराठों के शासन में बढ़ाकर 40 प्रतिशत तक कर दिया गया था। अंग्रेजों ने भी कोई नरमी नहीं बरती। कसकर लगान वसूली की गई। आजादी के बाद लगान में कमी आई है लेकिन खेती की लागत और अन्य खर्चे इतने बढ़ गए हैं कि खेती घाटे का सौदा हो गई है। किसानों की दम निकली जा रही है।
विशेषज्ञों की रिपोर्टों के अनुसार1970 से अब तक सरकारी नौकरी करने वालों की सेलरी चार सौ से पांच सौ गुना ज्यादा बढ़ गई है, जरूरी चीजों के दाम भी सैकड़ों गुना बढ़े हैं किसानों की लागत भी सैकड़ों गुना बढ़ी है लेकिन उसकी उपज की कीमत पचास गुना से ज्यादा नहीं बढ़ी। किसानों के साथ यह घोर अन्याय है। इसके परिणामस्वरूप किसानों की आर्थिक हालत इतनी खराब होने लगी है कि वह मजबूरन आत्महत्या करने लगे हैं।
किसानो ं की हालत का यह ट्रेंड 1991 के बाद से ज्यादा खराब हुआ है। राष्ट्रीय अपराध लेखा कार्यालय के आंकड़ों के अनुसार1995 से 2011 कर 17 वर्षों में  सात लाख पचास हजार 860 किसानों ने आत्महत्याएं कीं। आत्महत्याएं पहले महाराष्ट्र, कर्नाटक, आंध्रप्रदेश, छत्तीसगढ़ राज्यों में ही ज्यादा होती थीं। लेकिन अब उत्तर प्रदेश, पंजाब, हरियाणा, बिहार आदि में भी किसान आत्महत्याएं कर रहे हैं। उत्तर प्रदेश में 2013 में 750 किसानों ने आत्महत्या की। इसके बाद के सालों में किसानों की आत्महत्याएं और ज्यादा बढ़ी हैं। 2017 में पूरे देश में 10655 किसानों ने आत्महत्याएं कीं।  ये सरकारी आंकड़े हैं वास्तव में इससे ज्यादा किसानों ने आत्महत्याएं कीं। यही नहीं बड़ी संख्या में किसान खेती करना छोड़ रहे हैं। क्योंकि उन्हें पता है कि खेती  की अपेक्षा मजदूरी करना ज्यादा ठीक है। मजदूरी में कोई लागत नही लगानी, इसमें रोजाना नकद सायं को पैसे मिल जाते हैं। खेती में लागत लगाने और कमरतोड़ मेहनत के बावजूद उसका प्रतिफल मिलने की कोई गारंटी नहीं है। हर साल प्राकृतिक आपदाएं किसानों का अरबों रुपये का नुकसान करती हैं। जो बच रहता है उसकी वाजिब कीमत नहीं मिलती। उनके लिए बीमा योजनाएं उन्हें वेबकूफ बनाने से ज्यादा नहीं। किसानों के नुकसान की भरपाई कोई कंपनी तो क्या सरकार भी नहीं कर सकती। कंपनियां सिर्फ अपनी जेबें भरती हैं। इसलिए किसानों की फसल के बीमा का नाटक बंद किया जाना चाहिए।
किसानों की फसल की जब कीमत तय की जाती है तो सरकार आम आदमी की तरफ सोचती है कि  उनका पेट कैसे भरेगा? किसान की उपज के दाम बढ़ाने से कहीं महंगाई तो नहीं बढ़ेगी? इसलिए बहुत संकोच के साथ सौ-पचास रुपये प्रति कुंटल दाम बढ़ाती है। उस दर से भी सीमित मात्रा में गेंहूं, धान खरीदती है। गन्ना किसानों से गन्ना खरीदने के बाद भी उसकी कीमत  समय पर नहीं देती।  लेकिन जब सरकारी कर्मियों, नौकरशाहों, विधायक,सांसदों के वेतन में वृद्धि करती है, तब आम आदमी को दरकिनार कर देती है। 
नतीजा यह है कि नौकरीपेशा और किसानों के बीच आर्थिक खाई बढ़ती जा रही है।
इसलिए किसान अब खेती से उकता रहे हैं, अपनी बेटियों के लिए ऐसा लड़का तलाशते हैं जो नौकरी करता हो,  केवल खेती करने वाले के दांत तक नहीं देखना चाहते।  वह निराश और हताश हैं।  खेती को छोड़ शहर में कोई रोजगार करने की जुगाड़ में हैं। कल्पना करिए यदि खेती किसानों के हाथ से निकलकर मल्टीनेशनल कंपनियों और व्यापारियों के हाथ में आ गई तो गेहूं क्या आम आदमी को 18-19 रुपये किलो मिल पाएगा? मल्टीनेशनल कंपनियां गेहूं सौ रुपये किलो भी बेच सकती हैं। लोगों की मजबूरी का लाभ उठाना उन्हें आता है।  राजनीतिक पार्टियों और सरकारों का भी मुंह बंद कर सकती हैं। 
इसलिए बहुत जरूरत है खेती किसानों के हाथों में बनी रहे। यह तभी संभव है जबकि किसान को उसकी मेहनत और लागत की वाजिब कीमत मिले। यह कीमत लागत का कम सेकम चार गुनी होनी चाहिए। इसके अलावा जिस तरह सरकारी कर्मियों का हर साल मंहगाई भत्ता बढ़ता है, उसी अनुपात में किसानों को भी लाभ मिलना चाहिए। किसान भी इसी देश का नागरिक है। उसकी भी उतनी ही जरूरतें हैं, जितनी सरकारी कर्मचारी की। किसान और सरकारी कर्मचारी के बीच भेदभाव बंद होना चाहिए।
यह कोई मुश्किल काम नहीं है। नौकरीपेशा वाले खरीद सकते हैं, जब वे डोसा की एक प्लेट के ढाई सौ रुपये दे सकते हैं तो सत्तर-पिचहत्तर रुपये किलो गेहूं भी खरीद सकते हैं। रही बात गरीबों की तो सरकार उन्हें रियायती दर पर दे दे। मजदूरों की मजदूरी की दर बढ़ा दे। किसानों को खेती पर रोकना है तो उन्हें उसकी उपज की लागत की चार गुनी कीमत देनी ही चाहिए। इसके अलावा उन्हें गांवों में ऐसे रोजगार देने चाहिए जिससे उनकी आय बढ़ सके।
 

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