पिघल रहा नोटबंदी का बड़ा मु्द्दा



   अब जबकि भारत चुनाव आयोग ने उत्तर प्रदेश समेत पांच राज्यों में विधान सभा चुनाव की घोषणा कर दी है। ये चुनाव 11 फरवरी से लेकर 8 मार्च तक होंंगे। उत्तर प्रदेश में सात चरणों में, पंजाब गोवा, उत्तराखंड में एक-एक चरण में तो मणिपुर में दो चरणों में। 11 मार्च को एक साथ मतगणना होगी। कह सकते है चुनाव की डुगडुगी पिच चुकी है। सवाल यह है कि क्या नोटबंदी बड़ा चुनावी मुद्दा बनेगी? यह बात अब सारे राजनीतिक दलों और विचारकों के सामने है।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने आठ नवंबर 16 को रात्रि आठ बजे नोट बंदी का ऐलान किया। उसी रात्रि 12 बजे से 30 दिसंबर 16 तक यह लागू रही। इस बीच प्रधानमंत्री औेर उनकी सरकार के स्तर से अनेक बार आदेश बदले गए। इसमें कोई दो राय नहीं कि इस बीच पूरा देश बैंकों और एटीएम पर लाइन में लगा रहा। चार-पांच घंटे लाइन में लगने के बाद लोग अपने ही दो-ढाई हजार रुपये प्राप्त्त कर सके। तमाम लोग पूरा दिन इंतजार करने के बावजूद खाली हाथ लौटे। सौ के करीब लोग लाइन में लगकर मर गए। अब वे कभी वापस नहीं आएंगे। तमाम लोगों को शादीविवाह में भारी दिक्कत हुई यहां तक दुल्हा और दुलहिन तक को नोटों के लिए लाइन में लगना पड़ा। नोटबंदी के दौरान सरकार और मोदी को गाली देने और कोसने वालों की संख्या कम नहीं थी। लोग उनसे पूछते थे कि अब दे लो मोदी का नोट तो उनके मुंह से गालियां निकलती थी। लोग मोदी को नटवरलाल तक कहने से नहीं चूके। लेकिन बहुत से लोग लाइन में लगकर परेशान होने के बावजूद खुश थे। वे अपनी परेशानी से नहीं दूसरों की परेशानी से खुश थे। उन्हें खुशी इस बात में थी कि कालाधन बाहर निकलकर आएगा। खुशी इस बात में थी कि बड़े पैसे वालोंं का नुकसान हो रहा है। खुशी इस बात में थी कि आगे चलकर ब्याज दरें कम होंगी। खुशी इस बात मे थी कि भ्रष्टाचार कम होगा। इंडिया टुडे एक्सिस द्वारा कराए गए एक्जिट पोल के अनुसार इस नोटबंदी से 18 प्रतिशत गरीबों को फायदा होने की बात कही गई। 76 प्रतिशत लोगों ने नोटबंदी को अच्छा फैसला माना। केवल 23 प्रतिशत ने इस गलत फैसला कहा। तीन प्रतिशत ने कहा कि इससे कोई फर्क नही पड़ेगा। नोटबंदी से 42 प्रतिशत लोगों को परेशानी नहीं हुई जबकि 58 प्रतिशत ने दिक्कत की बात कबूली। 51 प्रतिशत लोगों ने माना कि इससे कालाधन खत्म होगा।
अब जबकि चुनाव की डुगडुगी बच चुकी है, नोटबंदी को लेकर बैंकों और एटीएम पर लाइनें नगण्य हो गई हैं। बहुत से लोग अपनी तकलीफ को भुला भी चुके हैं। लोगों के सामने चुनाव को लेकर बहुत सारी नई बातें आ गई हैं। जैसे उनकी पसंद का आदमी जीतेगा या नहीं। उनकी पसंद के व्यक्ति की सरकार बनेगी या नहीं। उनके आदमी को टिकट मिलेगी या नहीं। उनकी जिस पार्टी के साथ सहानुभूति है, उसकी क्या स्थिति रहेगी। वैसे भी नोटबंदी केंद्र सरकार का मुद्दा है, राज्य सरकार का इससे कोई लेना-देना नहीं है। कोई भी मुख्यमंत्री बने यदि केंद्र सरकार नोटबंदी लाएगी तो वह क्या कर लेगा? चूंकि भाजपा का चुनाव मोदी के नाम पर ही लड़ा जा रहा है, इसलिए इस मुद्दे का कुछ न कुछ तो असर होना ही चाहिए। गैरभाजपाई दल इस मुद्दे के आधार पर नोटबंदी से नाराज लोगों को अपने पक्ष में करने की कोशिश करेंगे। लोग इससे प्रभावित होंगे भी। सारे लोग इस कड़वे घूंट को पीकर खुश नहीं है और नहीं इसे वे भूलने वाले हैं। लेकिन इसका दूसरा पहलू यह भी है कि कुछ लोग नोटबंदी से खुश हैं। वे इसे कालेधन के खिलाफ एक अच्छा कदम मानते हैं, भले ही इससे वांछित काला धन वापस नहीं आया। मोदी कह तो रहे हैं कि वे बेईमानों के खिलाफ है। लोगों का अभी मोदी के साथ भरोसा है। भाजपा इस मुद्दे को बेईमानों के खिलाफ अभियान का रूप देकर कुछ लोगों तो अपने पक्ष में कर ही सकती है। कहने का मतलब है कि लोगों की नजर में नोटबंदी नुकसानदायक है तो फायदेमंद भी क्योंकि इसे लेकर अभी तक कोई अंतिम रूप से परिणाम सामने नहीं आए हैं और नहीं चुनाव होने तक आने की उम्मीद है।
चुनाव में और बहुत से मुद्दे उभरेंगे। इनमें सड़क, पानी, बिजली आदि के स्थानीय समस्याओं के अलावा विकास का मुद्दा अहम मुद्दा होगा। जाति और धर्म के नाम पर वोट मांगने पर भले ही रोक है। इस पर हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने भी मुहर लगा दी है लेकिन यह चीज इतनी आसानी से रुकने वाली नहीं है। जाति और धर्म राजनीति से अभी  समाप्त नहीं होने वाले नहीं है। सारे राजनीतिक दल इसके आधार पर ही अपने अधिकांश प्रत्या्िरशयों का चयन करते रहे हैं और आगे भी करेंगे। बसपा सुप्रीमो मायावती ने सुप्रीम कोर्ट आदेश के अगले दिन ही खुलेआम घोषणा कर दी कि उसने किन-किन जातियों और धर्मावलंबियों को टिकट दिए हैं।
राज्यों के सामने रोजगार का मुद्दा एक अहम मुद्दा है। कानून व्यवस्था का मुद्दा है। स्वास्थ्य और शिक्षा के मुद्दे भी हैं। बसपा सरकार और अन्य पिछली सरकारों के कार्यकाल में शिक्षा में अनुसूचित जाति के सभी अभ्यर्थियों की फीस प्रतिपूर्ति की जाती थी, इसके अलावा उन्हें स्कालरशिप दी जाती थी। सपा सरकार ने इसे 40 प्रतिशत तक सीमित करते हुए बहुत सी पाबंदियां लगा दी हैं। इससे दलितों के मतों पर असर पड़ना लाजिमी है। गैरसपाई दल इसे भी मुद्दा बना सकते हैं। समाजवादी पार्टी की अंदरूनी कलह भी एक मुद्दे के रूप में रहेगी। इतने सारे मुद्दों के बीच नोटबंदी का मुद्दा कितना प्रभावी होगा, यह वक्त ही बताएगा। लेकिन ज्यादा असरदार नहीं रहेगा, धीरे-धीरे इसका गुस्सा पिघल रहा है, इसमें कोई दो राय नहीं है।
याद रहे सामाजिक कार्यकर्ता अन्ना हजारे के आंदोलन के दौरान भ्रष्टाचार देश का सबसे बड़ा मुद्दा था। इसे लेकर नोटबंदी से भी ज्यादा जनता में उफान था। लोग सड़कों पर उतर आए थे। माना जाने लगा था कि अब तो भ्रष्टाचार खत्म होकर ही रहेगा। इसके बाद जब उत्तर प्रदेश समेत अनेक राज्यों के चुनाव सामने आए तब भी यही सवाल उठा था कि का भ्रष्टाचार मुख्य मुद्दा होगा या नहीं? लेकिन जाति, धर्म, विकास आदि के मुद्दों में वह मुख्य मुद्दा नहीं बन सका। यही स्थिति अब नोटबंदी के मुद्दे की होने जा रही है।

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